झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास की कलम से

(संदर्भ : 26 जनवरी को दिल्ली में हुआ ‘उपद्रव’)
’74 आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने राज्य के हर जिला मुख्यालय में रैली व सभा करने का फैसला लिया, यह दिखाने के लिए कि जनता उसके साथ है. संबद्ध जिले के मंत्री/सांसद आदि को रैली की अगुवाई करनी थी. बेतिया (पश्चिम चंपारण) में संभवतः 13 मई को रैली घोषित हो गयी. केंद्रीय मंत्री केदार पांडेय (अब दिवंगत) उसमें शामिल रहने वाले थे. हमने इसे चुनौती के रूप में लिया. उस जुलूस के तय रास्तों की दीवारों को ‘केदार पांडे वापस जाओ’ सहि अपने नारों से रंग दिया गया. टोलियां बना कर हमने घर घर जाकर लोगों से कांग्रेस की रैली व सभा में न जाने की अपील की. इससे शहर में यह संदेश चला गया कि रैली का प्रबल विरोध होगा.
तय दिन को एक धर्मशाला में हमारी मीटिंग हुई, जहां से हमें जुलूस की शक्ल में बड़ा रमना मैदान (जहां कांग्रेस की सभा होनी थी) जाना था. हमने साफ कर दिया कि तय संख्या में और पहचानने हुए युवा ही जुलूस में शामिल होंगे. मगर बढ़ते हुजूम को हम रोक नहीं सके. उधर विरोध की आशंका के कारण कांग्रेस का जुलूस उसके दफ्तर से निकटतम रूट से पहले ही मैदान पहुंच चुका था. हमारे पहुंचने तक सभा भी शुरू हो गयी थी. उस सभा से काफी दूरी पर शहर के लोग तमाशबीन की तरह जमा थे. शायद इस ‘उम्मीद’ में भी कुछ खास होनेवाला है.
हमें भी पुलिस ने बहुत दूर ही रोक दिया. हम वहीं बैठ गये और रिक्शे पर लगे माइक से भाषण देते रहे, नारे लगाते रहे.
मात्र पांच-दस मिनट में भाषण खत्म कर केदार पांडे मंच से उतरे और अपनी कार पर बैठ कर चल दिये. सभा भी खत्म कर दी गयी.
लेकिन तब तक आंदोलन के कार्यकर्ताओं का एक झुंड (‘संयोग’ से वे विद्यार्थी परिषद और संघ से संबद्ध युवक थे) केदार पांडे के वाहन को रोकने की नीयत से दौड़ चुका था. गनीमत कि मंत्री जी निकल चुके थे. तभी दूर खड़े तमाशबीन, आंदोलन के और आम लोग हर तरफ से दौड़ पड़े.. कांग्रेसी उनसे घिर गये.. भागने लगे. कुछ के साथ लप्पड़ थप्पड़ भी हुआ. इधर हम यह ऐलान करते हुए कि हमारा कार्यक्रम संपन्न हो गया, सभी साथी वापस लौट जायें. गनीमत कि हमारे उत्साही या थोड़े उग्र साथी मंत्री की गाड़ी तक नहीं पहुंच सके, अन्यथा कोई बड़ा हादसा हो सकता था.
जाहिर है कि जिन कुछ लोगों ने, जिनमें हमारे साथी भी थे, कांग्रेसियों के साथ बदसलूकी की, हम उनके कृत्य की जवाबदेही से बच नहीं सकते थे. लेकिन क्या उनकी ‘बेजा’ हरकतों के कारण हमारे आंदोलन या उस कार्यक्रम में शामिल सभी कार्यकर्ताओं को उपद्रवी कहा जा सकता है? बताते चलें कि उसी घटना के आधार पर कुछ नामजद और सैकड़ों अज्ञात लोगों पर हत्या के प्रयास (धारा 307) सहित अनेक धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज हुई; और इन पंक्तियों के लेखक सहित अनेक गिरफ्तार भी किये गये.
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अतीत की इस घटना को 26 जनवरी को दिल्ली, खास कर लाल किले में हुए ‘उपद्रव’ के संदर्भ में देखा जाये, तो मीडिया में बहुप्रचारित उपद्रव का सच समझ में आ सकता है.
अफसोस कि प्रारंभ में मैं भी इस प्रकरण को इस तरह नहीं देख पाया था.
हालांकि लाल किले पर स्थायी रूप से फहराते तिरंगे को किसी ने छुआ भी नहीं था, न ही नीचे जो लगाया गया, वह ‘खालिस्तानी’ झंडा था. और वह कथित बेजा हरकत करनेवाले की पहचान हो चुकी है कि वह किनका नजदीकी रहा है. वैसे यह संभव है कि उसने ऐसा महज उत्साह और जोश के अतिरेक में कर दिया हो. हालांकि उसकी और एक बहुत छोटे झुंड की हरकतों को सत्ता पक्ष, उसके समर्थकों, मीडिया के एक हिस्से ने; और पुलिस ने भी जिस चालाकी और बदनीयती से इस्तेमाल किया, उससे साजिश का संदेह भी होता ही है.
28 जनवरी की रात से धरनास्थलों के पास के ग्रामीण जिस प्रकार आंदोलनकारियों पर हमलावर हो रहे हैं, वह भी एक योजना का हिस्सा लगने लगा है.
बहरहाल, ’74 की उस घटना को याद व यहां साझा करने का मकसद महज यह ध्यान दिलाना था कि एक बड़े जनांदोलन में हो गयी किसी छोटी घटना के आधार पर पूरे आंदोलन के बारे में कोई धारणा बनाना, उस पर गंभीर आरोप लगाना उचित नहीं है. ऐसा या तो कोई भोलेपन में कर सकता है; या फिर बदनीयती से.
(फोटो सौजन्य गूगल)