सन 1908 में बिहार के मुजफ्फरपुर में एक बम कांड हुआ और दो क्रांतिकारी लड़के-खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी का नाम भारत के क्रांतिकारी इतिहास में अमर हो गया।
यह घटना भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद की गाथाओं के पहले की है।
मामला कुछ इस प्रकार था कि बिहार के मुजफ्फरपुर में एक जिला जज था जिसका नाम किंग्सफोर्ड था। वह अपनी क्रूरता के लिए बदनाम था। जब वह कलकत्ता प्रेसीडेंसी में एक मैजिस्ट्रेट हुआ करता था, तब वह बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ कठोर व्यवहार किया करता था। फिर जब वह बिहार के मुजफ्फरपुर में जज बनकर आया यो बंगाल के एक क्रांतिकारी संगठन ने दो युवकों- खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी को उस जज की हत्या करने को भेजा।
30 अप्रैल 1908 के दिन इन दोनों क्रांतिकारियों ने एक गाड़ी पर यह सोचकर बम फेंका कि इसमें जज किंग्सफोर्ड था। किंतु उनकी सूचना गलत थी। उस दिन उस गाड़ी पर एक अंग्रेज वकील प्रिंगले केनेडी की पत्नी और बेटी थी। बेटी की मृत्यु तो तत्काल हो गई और उसकी माँ ने दो दिनों बाद अस्पताल में दम तोड़ दिया।
अब पुलिस ने नाकाबंदी शुरू की। उसी रात दोनो क्रांतिकारी रेलवे लाइन के किनारे किनारे 25 मील तक पैदल चलकर समस्तीपुर की तरफ निकल गए थे। खुदीराम बोस की उम्र उस समय मुश्किल से 18 साल की थी। दूसरे दिन पूसा रोड स्थित वे किसी जीतू साह की दूकान से मूढ़ी खरीदकर एक कुएं के पास खा रहे थे। तभी शिव प्रसाद मिश्र और फतह सिंह नामक दो सिपाहियों को उनके बांग्ला भाषा में बातचीत करने का संदेह हुआ। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मुजफ्फरपुर लाया गया।
एक अंग्रेजी अखबार ‘दि स्टेट्समैन’ ने इस घटना का जिक्र कुछ इस तरह से किया है। अखबार लिखता है कि खुदीराम के दर्शन के लिए स्टेशन पर लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। वह मात्र 18 साल का था और चेहरे से कृतसंकल्प प्रतीत होता था। जब उसे प्रथम श्रेणी के डब्बे से बाहर निकालकर फिटन (तांगा) पर बिठाया गया तो उसके चेहरे पर चिंता की कोई लकीर नहीं थी। वह खुश दिखाई पड़ रहा था और और फिटन पर बैठते ही वंदेमातरम का नारा लगा रहा था।
उसका दूसरा साथी प्रफुल्ल चाकी उसके साथ मुजफ्फरपुर से साथ चलने के बाद पूसा रोड से समस्तीपुर की तरफ मुड़ गया था। वहां उसने एक रेलवे कर्मचारी त्रिगुणा चरण घोष से मदद ली। उन्होंने प्रफुल्ल चाकी को कपड़े और कुछ पैसे देकर रात में ही एक ट्रेन पर बिठा दिया था।
जब प्रफुल्ल चाकी ट्रेन में सफर कर रहा था तब नंदलाल बैनर्जी नाम के एक दरोगा को उसपर संदेह हुआ। उसने एक टेलीग्राफ के माध्यम से मुजफ्फरपुर में इस बात की सूचना भेजी। वहां उडमैन नाम का एक मैजिस्ट्रेट था जिसने उस टेलीग्राफ को पढ़कर मोकामा पुलिस को संदेश दिया कि प्रफुल्ल चाकी को गिरफ्तार किया जाए।
टेलीग्राफ भेजकर दारोगा नंदलाल बैनर्जी उसी डब्बे में प्रफुल्ल चाजी के साथ सफर करने लगा। जब दारोगा ने उसे गिरफ्तार करनी चाही तो उसने दारोगा पर गोली चला दी। किन्तु दारोगा बच गया। अब प्रफुल्ल चाकी ने गिरफ्तार होने की बजाय खुद को गोली मार ली। यह घटना 2 मई 1908 को घटी।
बाद में क्रांतिकारियों ने उस दारोगा की कलकत्ता के सरपेंटाइन रोड पर 2 नवंबर 1908 को गोली मारकर हत्या कर दी।
आज भी लेखक और विद्वान लोग यह तय नहीं कर पाए हैं कि इन दो महान क्रांतिकारियों को आजादी की लड़ाई में किस श्रेणी में रखें!
खुदीराम बोस ने फांसी के फंदे पर लटकने के पहले एक गीत गाया था, “एकबार विदाई दो माँ, फिरे अशी” और कहते हैं कि उनका गला इतना पतला था कि फांसी के फंदे भी गले पर ढीले पड़ रहे थे।
आज खुदीराम बोस का शानदार दिवस है
