




वायसराय लार्ड मिंटो (1845-1914) ने सितंबर1910 में सच्चिदानंद सिन्हा (1871-1950) को शिमला में मिलने का आमंत्रण दिया।
यदि उस दिन सच्चिदानंद सिन्हा ने लार्ड मिंटो को अपनी एक बहुमूल्य सलाह न दी होती तो हो सकता था कि 1911 में बिहार का बंगाल से विभाजन नहीं होता।
गृह मंत्रालय से सर जॉन जेन्किन्स की सलाह आई थी कि भारत सरकार के लॉ मेंबर के पद पर बम्बई हाई कोर्ट के जज जस्टिस दावर को बिठा दिया जाए।
यह पद लार्ड सिन्हा (1863-1928), जिनका पूरा नाम सत्येंद्र प्रसन्न सिन्हा था और जो बंगाल में बोलपुर के पास के रहने वाले थे, के पास था और अब वे अवकाशप्राप्त करने वाले थे।
मिंटो चाहते थे कि लार्ड सिन्हा के रिटायर्ड होने पर इस पद पर किसी जानकार मुसलमान को बिठाया जाए। इसी बात की सलाह लेने के लिए वायसराय मिंटो ने सच्चिदानंद सिन्हा को शिमला बुलाया था।
मिंटो ने अपनी मजबूरी जाहिर करते हुए सिन्हा से कहा कि वे भारत सरकार के लॉ मेंबर के पद को किसी जानकार मुसलमान को देना चाहते हैं, किन्तु गृह मंत्रालय ने बम्बई हाई कोर्ट के जज जस्टिस दावर का नाम पेश किया है।
सिन्हा को तत्काल लगा कि यदि इस पद पर बिहार के सर अली इमाम (1969-1932) को बिठा दिया जाए तो बिहार को बंगाल से एक पृथक राज्य बनाने का उनका सपना पूरा हो जाएगा। उन दिनों सच्चिदानंद सिन्हा के नेतृत्व में बिहार को बंगाल से अलग करने का एक आंदोलन चल रहा था।
अब सवाल था कि बंबई हाई कोर्ट के जज दावर का पत्ता कैसे साफ किया जाए?
ये जस्टिस दावर वही जज थे जिन्होंने बाल गंगाधर तिलक को अपने अखबार में एक लेख लिखने के लिए देशद्रोह की सजा सुनाया था।
बाल गंगाधर तिलक ने जो लेख लिखा था वह क्रांतिकारी खुदीराम बोस (1889-1908) और प्रफुल्ल चाकी द्वारा बिहार के मुजफ्फरपुर में एक जज की गाड़ी पर बम फेंकने की घटना के समर्थन में था।
अब सच्चिदानंद सिन्हा ने लार्ड मिंटो को सलाह दी कि जस्टिस दावर ने चुंकि तिलक को राजद्रोह की सजा सुनाई है तो ऐसे में उन्हें यदि भारत सरकार के लॉ मेम्बर का पद दिया जाता है तो भारत की जनता इसका विरोध करेगी। और फिर एक जज के लिए यह पद शोभता भी नही है।
लार्ड मिंटो ने सच्चिदानंद सिन्हा की सलाह मान ली और यह पद सर अली इमाम को दे दिया गया।
सच्चिदानंद सिन्हा और अली इमाम गहरे मित्र थे। यहां तक कि अली इमाम की नियुक्ति पत्र से संबंधित एक पत्र सिन्हा ने खुद ले जाकर उन्हें कलकत्ता में दिया।
हालांकि अली इमाम इस पद को स्वीकर करने से इनकार कर रहे थे, किन्तु सच्चिदानंद सिन्हा ने उन्हें समझाया कि जब वे इस पद पर होंगे तभी वे अंग्रेजी सरकार को समझा सकेंगे कि बिहार का बंगाल से विभाजन क्यों जरूरी है। अब अली इमाम मान गए और उन्होंने वही किया जैसा सच्चिदानंद सिन्हा चाहते थे। लेकिन लार्ड मिंटो को इस बात की तनिक भी भनक नही लगी कि सिन्हा भारत सरकार के लॉ मैंबर के पद पर अली इमाम को क्यों बिठाना चाहते थे?
यहां तक कि जब बिहार और उड़ीसा को 1911 के दिसंबर में बंगाल से अलग कर दिया गया तो बाद में एकबार लार्ड सिन्हा ने सच्चिदानंद सिन्हा से कहा था कि यदि वे यह जान जाते कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा था तो वे लॉ मेम्बर का पद ही खाली नहीं करते।
(विस्तृत जानकारी के लिए डॉ ब्रजेश वर्मा की पुस्तक “बिहार-1911” पढ़ें)
(चित्र साभार गूगल)