सीनियर पत्रकार फैजान अहमद ने की उपन्यास चंदना की समीक्षा:- फैजान अहमद पटना स्थिति The Telegraph और The Times of India के सीनियर पत्रकार रह चुके हैं?

222 पृष्टों की किताब एक ही सिटिंग ने पढ़ लेना बहुत संभव नहीं है लेकिन यह पुस्तक है ही इतनी दिलचस्प कि इसे छोड़ने का दिल नही चाहता। मैंने कुछ ज्यादा ही समय लिया इसे पूरा पढ़ने में लेकिन कहानी का ताना बाना और उसके पात्र कभी अलग और दूर नही हुए।

भोजपुर के आरा से लेकर झारखंड के संथाल परगना और फिर वापस आरा तक कहानी में बहुत उतर चढ़ाव आते हैं लेकिन ब्रजेश वर्मा ने जिस हुनरमंदी और अपनी कलम के सहारे इसे परवान चढ़ाया है उसकी मैं भरपूर सराहना करता हूं। कभी कभी तो ऐसा भी लगता है जैसे मैं कागज़ पर छपी कोई किताब नहीं बल्कि स्क्रीन पर कोई फिल्म या सीरियल देख रहा हूं।

बात तो साइबर क्राइम से शुरू होती है जिसका शिकार आरा निवासी रिटायर्ड फौजी मंगल सिंह होता है और फिर इसके तार झारखंड के जामताड़ा तक पहुंच जाते हैं। जामताड़ा को साइबर क्राइम का कैपिटल कहा जाता है। OTT पर इसी शहर के नाम से बना सीरियल भी देख चुका हूं और कहीं पर तो ऐसा लगता है जैसे यह उपन्यास उसी सीरियल का हिस्सा है लेकिन लेखक ने बड़ी खूबसूरती से कहानी को साइबर क्राइम से जोड़ते हुए असली मुद्दे पर पहुंचा दिया है, यानी राजमहल की पहाड़ी श्रृंखलाओं और डायनामाइट से उनके लगातार तोड़ने तक। पहाड़ी जातियों की पहचान पहाड़ लगातार तोड़े जा रहे हैं। लेकिन सरकारों को इसकी कोई चिंता नहीं कि वो क्या विनाश कर रहे हैं और चांद लोगों के हाथों अपनी प्राचीन सभ्यता और पहचान बेच रहे हैं।

यह लड़की जिसका नाम चंदना है और कहानी का बड़ा खाका उसी के इर्द गिर्द घूमता है ।पहाड़ी जाति की पहली और अकेली लड़की है जो कॉलेज तक पढ़ आई है लेकिन पहाड़ियों से आने वाले धमाकों और पत्थरों को तोड़ने और पहाड़ों के नष्ट होने से बेहद चिंतित है। और यह उसी का प्रयास है कि साइबर क्रिमिनल से लेकर पुलिस, समाज और ज्यूडिशियरी तक को उसकी बात न केवल सुननी पड़ती है बल्कि उसका समर्थन भी करना पड़ता है और यही उसकी सब से बड़ी जीत है।

उसकी कही हुई बातें दूर तक सुनी जाएंगी और देर तक याद रहेंगी: उजड़े हुए जंगलों को फिर से उगाया जा सकता है किन्तु टूटे हुए पहाड़ों का फिर से निर्माण नही किया जा सकता। जब ये पहाड़ ही नही रहेंगे तो हमारी इंसानी सभ्यता जो भारत ने सिकंदर के आने से पहले से राजमहल की इन पहाड़ियों पर निवास करती आ रही हैं हमेशा के लिए दफन हो जाएंगी।”

“अब लड़ाई करनी होगी। अब यदि समय को हाथ से निकल जाने दिया गया तो राजमहल की ये पहाड़ी श्रृंखलाएं हमारी आने वाली पीढ़ियों को कभी भी माफ नही करेंगी। लोग यहां जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं किंतु हम सबों को अब अपने पहाड़ों के लिए लड़ना होगा।”

इस उपन्यास के केंद्रीय पात्र चंदना, मामोनी, केशव तो अपनी जगह फिट हैं ही साथ ही दूसरे किरदार जैसे मंगल, रामधनी, मुर्मू, तिवारी, कालीदास, डॉक्टर साहब, दादी इत्यादि भी अपनी जगह बिल्कुल फिट हैं। लेखक ने स्थानीय भाषाओं और सभ्यताओं का भी एकदम दुरुस्त इस्तेमाल।किया है। लेकिन कहीं कहीं शब्दों के उपयोग और स्त्रीलिंग पुलिंग की गलतियां हैं। फोटो की छपाई बेहतर होती तो क्या कहने थे। अशोक कर्ण की तस्वीरें तो अच्छी हैं लेकिन इतनी धुंधली छपी हैं कि कुछ पता ही नही चलता।

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.