सुजाता प्रसाद की पुस्तक समीक्षा।

लेखिका दिल्ली में शिक्षिका हैं।??

पुस्तक : सरकार बाबू
प्रकाशन : नम्या प्रेस
मूल्य : रू २९९
लेखक:डॉ ब्रजेश वर्मा

पुस्तक समीक्षा : खबरों के पीछे दौड़ने का सिलसिला

पत्रकारिता को अपना करियर बनाने का सपना देखने वाले फ्रेशियर्स के लिए और पत्रकारिता को करीब से जानने को उत्सुक व्यक्तियों के लिए “सरकार बाबू” एक उपयोगी उपन्यास है। पत्रकार की सामाजिक स्थिति और उसके रुतबे के पीछे उसके संघर्ष, उसकी भागदौड़, उसका अपने काम के प्रति समर्पण इत्यादि को समझने के लिए आम लोगों के दिलों पर दस्तक देने वाली है यह पुस्तक। शब्दों की गति से बने सफ़र की दास्तान सचमुच वास्तविक बन पड़ी है। बिना किसी बनावटीपन के लेखक महोदय डॉ. ब्रजेश वर्मा जी अपनी ईमानदार कोशिश के लिए साधुवाद के पात्र हैं।

“कहानी उस समय की है जब एलेक्ट्रानिक मीडिया इतना सक्रिय नहीं था कि बात को पूरे देश तक फैला कर बात का बतंगड़ बनाया जा सके। प्रिंट मीडिया की अपनी ताकत थी और छोटे जगहों पर काम करने वाले गैर वेतनभोगी पत्रकारों की जिम्मेदारियां ऐसी घटनाओं पर और बढ़ जाया करती थीं।” उपर्युक्त बातों का उल्लेख स्वयं लेखक ने इस पुस्तक में किया है, जो पाठकों को नॉस्टेलजिया से भर देती है। वे उस बीते समय के खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरते हैं, जब हर हाथ में मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करते थे।

दिलचस्प शुरुआत कौतूहल पैदा करने वाली है, जिसकी कुछ पंक्तियों को पढ़कर हममें से तकरीबन सभी इस उपन्यास को पढ़ने के लिए जिज्ञासु होंगे। वे पंक्तियां हैं- “उन्होंने खजाने की तलाश नहीं की, खजाना खुद उनके सामने चला आया। वह हीरे मोतियों से भरा हुआ कोई संदूक नहीं था, जिसे पाने के लिए लोग अपनी पूरी जिंदगी भटकते रहते हैं। वह शब्दों का निर्माण करने वाला एक खजाना था और शब्दों को गढ़ने के लिए एक विषय वस्तु उनके पास चलकर आई थी।”

उपन्यास में पत्रकारिता के माध्यम से पत्रकार के जीवन में दो जून की रोटी का इंतजाम और उसके फाके को भी दिखाया गया है, तो कुछ सनसनीखेज खबर रिपोर्ट कर दिए जाने के चंद दिनों बाद जान के लाले पड़ने का भी दृश्य देखा जा सकता है जिसका मुख्य किरदार स्वयं अमुक पत्रकार ने निभाया है। उपन्यास में पत्रकार सरकार बाबू के साथ ऐसे ही हादसे को होते हुए बताया गया है, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला है।

बिहार के स्थानीय भाषा का प्रयोग इस प्रोजेक्ट को ज्यादा सच्चा बनाता है। उदाहरण के लिए “घटनाएं इंतजार करती हैं पत्रकारों की, यह अलग बात है कि कौन इसे पहले लोकता है” यानी कौन इसे पहले कैच (लोकता) करता है। मतलब खबर की जानकारी मिलते ही उसके महत्व को तुरंत पकड़ लेना ही सबसे बड़ी बात होती है। साथ ही उसे गोल में परिवर्तित करने की प्रक्रिया में भी लग जाना होता है यानी फिर शुरू होता है उन खबरों के पीछे दौड़ने का सिलसिला।

इतिहास ही नहीं स्थान विशेष की भौगोलिक अवस्था का भी पूर्ण विवरण प्रस्तुत करता हुआ उपन्यास अपनी गति में चलता ही जाता है, जिसमें राजनीति स्वत: ही साथ हो लेती है। कहानी रिपोर्टिंग के साथ साथ आगे बढ़ती है। कभी कभी तो ऐसा लगता है मानों अतीत में जाकर हम अखबार के पन्नों को पलट रहे हैं, पर बीच-बीच में लेखक के परिचितों से होता हुआ परिचय हमें सच्ची कहानी पढ़ने का एहसास करवाती है। कहानी हमें यह भी बताती है कि समाचार पत्रों के पन्नों पर आए ऐसे कई खबर जिन्हें पढ़ने में चंद मिनट ही लगते हैं उनकी रिपोर्टिंग के पीछे कितने घंटों की मशक्कत छुपी होती है। और उस श्रमसाध्य मेहनत में उस पत्रकार की सूझबूझ को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। कहानी की रिपोर्टिंग या यूं कहें रिपोर्टिंग की कहानी का रिपोर्ट कार्ड ए प्लस है, बिल्कुल जीवंत।

उपन्यास में पत्रकारिता अपनी रफ़्तार से चलते हुए बातों ही बातों में सीख भी दे जाती है कि बासी खबरों का कोई मोल (महत्व) नहीं होता। अवसरों की तलाश तो अपनी पैनी निगाह से स्वयं पत्रकार को ही करनी पड़ती है। ऐसा भी कई बार होता है कि चाहे जितनी भी भूख लगी हो पत्रकार जब तक रिपोर्ट फाइल नहीं कर देते भोजन और थकान के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। संपूर्ण रुप से पत्रकारिता जगत की कहानी “सरकार बाबू” में पृष्ठ संख्या 75 में इस बात का जिक्र किया है कि खबर भेजने का ‘डेड लाइन’ निकल रहा था। अखबार के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है खबरों का समय पर भेजना। इस डेड लाइन को अगर कोई पत्रकार नहीं समझ पाता तो फिर वह एक अच्छा पत्रकार कभी नहीं हो सकता। एक नसीहत यह भी कि यह एक उसूल है, दोस्ती अपनी जगह होती है। यदि कोई पत्रकार मित्र इस उसूल को नहीं समझ पाता और उस बात की इज्जत नहीं करता है तो वह वास्तव में शुद्ध पत्रकार नहीं है। इस प्रकार “आगे की खबर के लिए आगे तो बढ़ना ही होगा” प्रस्तुत पंक्ति सहित रिपोर्टिंग फ्रेंडली कई ऐसी बातें हैं, कई ऐसी परिस्थितियां हैं जो पत्रकारिता के गुर बताती हैं।

पुस्तक में पत्रकार के जीवन की कहानी व्यक्तिगत न होकर सभी पत्रकारों की जीवन गाथा लगती है। पृष्ठ संख्या 66 पर पत्रकारों के लिए पत्रकारों को संबोधित कुछ पंक्तियां पत्रकारों को परिभाषित करती हैं। जमीन से जुड़े पत्रकारों की संवेदना बयान करती वे पंक्तियां हैं- “एक अच्छा पत्रकार कभी भी किसी बड़े संस्थान में ट्रेनिंग पाकर तैयार नहीं हो सकता है, पत्रकार एक जन्मजात पैदा होने वाला जीव है। उसके पास एक विशेष आंतरिक संवेदना हुआ करती है, जिससे वह समाज को बेहतर तरीके से समझने की ताकत रखता है। संस्थानों में व्यापार के गुर सिखाए जा सकते हैं, किसी के अंदर के मारक तत्व की क्षमता को नहीं उभारा जा सकता। तकनीक और हृदय से निकलने वाली सोच के बीच जमीन आसमान का फर्क होता है।”

पहले पेज पर जिस खजाने के मिलने से कहानी शुरू हुई थी, पेज नंबर 26 से उसकी रिपोर्टिंग का सिलसिला शुरू हो जाता है। उपन्यास में मुख्य पत्रकार ने उस खबर की तीव्रता को कुछ ही क्षण में परख लिया था, जिसे यदि भूकंप के रिक्टर स्केल पर मापा जाता तो उसकी तीव्रता सात से कम नहीं होती। यह एक दिल दहला देने वाली खबर थी, जो अपने पाठकों को शुरू से लेकर अंत तक बांधे रखती है। ऐसे ही एक और रिपोर्टिंग जहां झारखंड के आदिवासी गांव का वर्णन किया गया है उसकी कहानी भी सुंदर जान पड़ती है। उस आदिवासी गांव के आर्थिक पिछड़ेपन को उकेरती हुई रिपोर्टिंग उस गांव के मनोरम दृश्य के चित्रण के साथ सजीव लगती है। जैसे घर खपड़े का था, टूटा फूटा किंतु दरवाजे के आगे सुंदर से नीपा-पोता। दरवाजे की दीवारों पर प्रकृति से जुड़े कुछ सुंदर चित्र बनाए गए थे। बाहरी दीवारों पर जानवरों, फूलों, फलों और इंसान की तस्वीरों के माध्यम से जिस प्राचीन सभ्यता को दर्शाया गया था उनपर बारिश के छींटें पड़े हुए थे। कहानी एक और बात का जिक्र करती है कि गांव में बारिश सुख और दुःख दोनों एक साथ लेकर आती है। बरसात के दिनों में धान के पौधों को लहलहाते हुए देखना एक किसान को असीम सुख प्रदान करता है। फिर जब वही पानी मिट्टी से बने उनके घरों को गीला कर छप्पर से नीचे उतर कर उनकी रातों की नींद को हराम कर देता है, तो उसे दुखों का कारण भी माना जाता है। संवेदनशील लेखक की कलम ने भी यह स्वीकार कर लिया कि मानसून के दिनों में चलने वाला यह जीवन चक्र बड़ा ही लंबा होता है। सचमुच दयनीय स्थिति का वास्तविक चित्रण किया गया है।

लेखक द्वारा अतीत की पत्रकारिता की तुलना वर्तमान पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य में भी की गई है। जब लेखक अपने तंज को संभाल नहीं पाते तो कह उठते हैं “महज पांच सौ शब्दों की एक रिपोर्ट निकालने के लिए यदि कोई जिला स्तर का पत्रकार ठंढ़ के मौसम में ग्यारह घंटे तक खुले आसमान में विचरण करता है तो उसकी पहचान किस रुप में की जानी चाहिए? दिल्ली में बैठे कथित रूप से कोई बड़ा पत्रकार जो कि हर रोज अपने चैनलों पर आकर हल्ला मचाते हैं; ऐसी रैलियों को कवर करने की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह उनके बूते के बाहर की बात होगी। वे सिर्फ इतना करेंगे कि सरकार बाबू जैसे छोटे इलाके के पत्रकारों द्वारा भेजी गई रिपोर्ट को अपने तरीके से गढ़ेंगे और फिर अपने कुछ पहचान के लोगों को टीवी पर बिठाकर हंगामा खड़ी करेंगे। नहीं इसे पत्रकारिता तो हरगिज नहीं कह सकते।”(पृष्ठ 131)

आदिवासी लड़की दीपा मुर्मू की सनसनीखेज रिपोर्टिंग, संथाल परगना में कालाजार बीमारी से हुई मौत की दर्दनाक रिपोर्टिंग, दुमका में मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी द्वारा पावर सब स्टेशन के असफल उद्घाटन की निर्भिक रिपोर्टिंग, जंगल सिमटने के कारण हाथियों के लिए संकट के दिन आ जाने पर इंसान और हाथी के बीच भोजन पानी के संघर्ष और टकराव पर की गई साहसिक रिपोर्टिंग, कड़कड़ाती ठंड में रात के दो बजे तक मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की रैली की आदर्श रिपोर्टिंग, भागलपुर के उल्टे पुल का जिक्र और उसके समानांतर नए पुल का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा उद्घाटन और चंद महीनों बाद पुराने उल्टे पुल के गिर जाने की जानकारी परक रिपोर्टिंग, झारखंड में भूख (स्टारवेशन) से एक महिला की हुई मौत की मार्मिक रिपोर्टिंग, लखीसराय में माओवादियों द्वारा सात पुलिसकर्मियों की हत्या की संवेदनशील रिपोर्टिंग, अंत में भागलपुर शहर के बारे में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से दी गई जानकारी और विक्रमशिला को नालंदा की तरह बौद्ध सर्किट से जोड़ने की बात को लेकर बुनी गई पुरातात्त्विक रिपोर्टिंग
पाठकों और भावी पत्रकारों के लिए महत्वपूर्ण और पढ़ने योग्य है।
लिखते लिखते लेखक की उदासी भी छुप नहीं पाती है और पंक्तियों में दर्द झलक ही जाता है कि “वास्तविकता यह है कि अंत तक छोटी जगहों पर काम करने वाले पत्रकारों को कोई पहचान नहीं मिलती।” अंत में कहानी यह कहकर समाप्त करना कि “वह (सरकार बाबू) पत्रकारिता के सफर को अलविदा करते हुए मीडिया जगत के लिए एक सवाल रख गए, कि क्या छोटी जगहों पर काम करने वाले पत्रकारों का यही अंत होता है।” मेरी समझ से उपन्यास तो हमें यही बताता है कि छोटी जगह का अमुक पत्रकार अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है। दरअसल उसकी उपलब्धियां जनमानस द्वारा सराही जाती हैं। आसान भाषा में यह उपन्यास गंभीर लेखन की मिसाल है और नि: संदेह पठनीय है।
सुजाता प्रसाद
शिक्षिका
नई दिल्ली
स्वतंत्र रचनाकार
E-mail : [email protected]

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.