ब्रिटिश जमाने का राजमहल रेलवे स्टेशन

भारत का पहला यात्री ट्रेन 1853 में बंबई से ठाणे के लिए खुला यह सब जानते हैं, किन्तु ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के आधिकारिक दस्तावेजों के अध्ययन से पता चलता है कि अंग्रेजों ने 1851 में ही राजमहल में रेलवे लाइन का निर्माण शुरू कर दिया था जिसे एक रेल कंपनी के दिवालिया हो जाने के कारण रोक दिया गया।
यदि आप 1938 के संथाल परगना गजेटियर का अध्ययन करते हैं तो उसमें 11 उन कब्रों का जिक्र आता है जो वर्तमान राजमहल कचहरी के पश्चिम में अंग्रेजों के पुराने कब्रिस्तान के पास थी। ये कब्रें  उन ब्रिटिश अधिकारियों की थीं जो यहां 1847, 1848 और 1859 में रेल लाइनों के निर्माण के लिए आए थे और उनकी मृत्यु हो जाने के बाद उन्हें यहीं दफना दिया गया था।
भरतीय रेलवे के दस्तावेजों के अध्ययन से पता चलता है कि उन दिनों एक “ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी” हुआ करती थी  जिसकी स्थापना 1845 में हुई थी और उस कंपनी को कलकत्ता से दिल्ली तक सर्वे का एक काम दिया गया था। सर्वे के दौरान उस कंपनी का जो खर्च हुआ उससे वह दीवालिया हो गई।
उस कंपनी को दीवालियापन से उबरने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसके साथ एक समझौता किया और 1851 में कलकत्ता से राजमहल के बीच एक रेल लाइन के निर्माण का काम सौंपा। ब्रिटिश काल के पूर्वी रेलवे के इतिहास में यह सबसे बड़ी योजना थी। किन्तु कंपनी चूंकि पहले दीवालिया हो चुकी थी तो उसे इस प्रोजेक्ट को बनाने में आठ  साल लग गए। यह 1859 में जाकर पूरा हुआ।  तब ट्रेन उधवा नाला तक जाया करती थी।
इस रेलवे के निर्माण में बहुत सारे इंजीनियर राजमहल आए थे जिन्होंने वहां के मध्यकालीन धरोहरों को नष्ट कर दिया।
1660 तक राजमहल बंगाल की राजधानी रही और मुगल गवर्नर शाहशुजा ने  एक बड़े से कुएं का निर्माण कराया था जिसके पानी को रेल अधिकारी भाप के इंजन में डालने तथा रेलवे के अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल किया करते थे।
जब 1660 में शाहशुजा को औरंगजेब के सेनापति मीर जुमला ने पराजित कर दिया तब शुजा की 300 रखैलों, जो मुख्यरूप से कश्मीर से लाई गई थीं,  ने अपने जेवर गहने इसी कुएं में फेंक दिए थे। एक ब्रिटिश इतिहासकार चार्ल्स स्टीवर्ट, जो खुद ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक कैप्टन था, ने अपनी पुस्तक ‘दि हिस्ट्री ऑफ बंगाल ‘ में इस घटना का जिक्र किया है।
अंदाजा यह लगाया जाता है कि उन गहनों को ब्रिटिश अधिकारी ,जो रेलवे का काम करने आये थे  उस कुएं से निकल ले गए या फिर अभी भी वहीं पड़े हैं!
सरकार ने ऐतिहासिक रेकॉर्ड होने के बावजूद इसकी खोज करने की कभी कोशिश नहीं कि, जैसा कि रेल निर्माण के दौरान प्राचीन भारत का एक बजालत मिला था, जिसे  कलकत्ता म्यूजियम में रखा गया, किन्तु सरकार ने इस सम्बंध में खोज को आगे नहीं बढ़ाया। यह बजालत (गहरे हरे और बदामी रंग का 12 फिट का एक चट्टान) 1870 में मिला था।
1807 में फ्रांसिस बिल्फोर्ट (1761-1822), जो एक कर्नल था और खानम बीबी नाम की महिला से जिसने शादी की थी , राजमहल आया था और उसने दावा किया था कि यहां प्राचीन पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) की सभ्यताओं के कुछ निशान मिल सकते हैं।  उसके बाद बुकानन यहां पहुचा था।
रेलवे के अधिकारी जब यहां पहुचे तो उन्होंने ब्लास्ट कर राजमहल के बहुत सारे ऐतिहासिक भवनों को उड़ा दिया  और उन ईंटों का प्रयोग रेलवे के निर्माण में किया।
इससे भी पहले राजमहल के ऐतिहासिक भवनों के ईंटों को उठाकर मुर्शिदाबाद तथा बिहार के कहलगाँव में भवनों के निर्माण में ले जाया गया था।
(विशेष जानकारी के लिए डॉ ब्रजेश वर्मा की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक “राजमहल” पढ़ें)
(फोटो:साभार गूगल)

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.