पेशवा बालाजी राव (1720-1761) तथा मराठा सरदार राघोजी भोंसले (1695-1755) ने कई बार अपनी विशाल घुड़सवार सेना के साथ राजमहल (अब झारखंड) के रास्ते बंगाल में प्रवेश किया, किन्तु उनके निशान कहीं नहीं मिलते।
सन 1741 से 1751 के बीच राघोजी भोंसले ने काम से कम पांच बार बंगाल पर आक्रमण किया जिनके साथ उनकी 40,000 घुड़सवार सेना हुआ करती थीं और पेशवा बालाजी राव ने 1743 में अपनी 50,000 घुड़सवार सेना के साथ बंगाल को रौंदा। इनकी सेनाएं राजमहल होकर भी गुजरी थीं, किन्तु आश्चर्य है कि उनके निशान नहीं मिलते।
तब बंगाल पर अलीवर्दी खां (1671-1756) का शासन था। जहां मराठा सरदार राघोजी भोंसले ने अपने लड़ाकू बार्गी घुडसवारों के साथ, जिनके विषय में यह कहा जाता है कि वे कभी घोड़े की पीठ से उतरते ही नहीं थे, बंगाल पर आक्रमण किया था वहीं उनके विरोधी पेशवा बालाजी राव ने अलीवर्दी खां की मदद के लिए उन्हें बंगाल में ही घेर लिया था। दोनों मराठों में नहीं बनती थी।
बंगाल में मराठों का आक्रमण एक किंवदंती बन चुकि है जिनके विषय में 18वीं सदी के बांग्ला साहित्य ‘महाराष्ट्र पुराण’ में काफी चर्चा की गई है जिसकी रचना गंगा राम ने की थी और बाद में महाश्वेता देवी ने भी इसका उदाहरण दिया है। मराठों के डर से उस समय की ईस्ट इंडिया कंपनी इतनी भयभीत थी कि उनसे बचने के लिए उन्होंने कलकत्ता में एक विशाल गढ्ढा खोद दिया था जिसे आज भी ‘मराठा डिच’ के नाम से पुकारा जाता है। हालांकि मराठों और अंग्रेजों की बंगाल में कभी लड़ाई नहीं हुई।
मराठा सरदार राघोजी भोसले की लड़ाई मुख्यरूप से अलीवर्दी खां से थी। मराठे बार -बंगाल पर चढ़ाई करते थे। तब जाकर अलीवर्दी खां ने पेशवा बालाजी राव से मदद मांगी जो अपनी 50,000 घुडसवारों के साथ भागलपुर- कहलगाँव के रास्ते राजमहल होते हुए बंगाल पहुँचे और राघोजी भोसले की सेना को पराजित किया।
सर यदुनाथ सरकार (1870-1958) जो मध्यकालीन भारत के सबसे बड़े इतिहासकार माने जाते हैं उन्होंने अपनी पुस्तक ‘फाल ऑफ दि मुगल एम्पायर’ में बालाजी राव की सेना का बंगाल में प्रवेश करने का जो रास्ता बताया है वह कुछ अलग है। उनके अनुसार पेशवा बालाजी राव 26 जनवरी 1743 को इलाहाबाद के रास्ते चलकर मुंगेर में खड़गपुर की पहाड़ियों को पार करते हुए दुमका के सरंगपानी इलाके से आगे बढ़कर 7 अप्रैल 1743 को वर्दवान में अलीवर्दी खां से मिले थे।
जबकि जॉन हावेल्स (1711-198) जो कि 1760 में बंगाल के अस्थायी गवर्नर थे, ने लिखा है कि पेशवा बालाजी राव भागलपुर-कहलगाँव के रास्ते राजमहल के टेलियागढी होते हुए तीनपहाड़ के पास बनगाँव की तरफ से बढ़े थे।
फ्रांसिस बुकानन, जिन्होंने भागलपुर का सर्वे किया, मराठों के उन्हीं रास्तों की खोज की शुरुआत 6 जनवरी 1811 से की थी और बोरिया (वर्तमान साहेबगंज जिला झारखंड) होते हुए 29 जनवरी 1811 को कहलगाँव (बिहार) पहुंचे थे।
मराठों के बंगाल पर जितने भी आक्रमण हुए और वे राजमहल के इलाके से जब भी गुजरे उनके कोई निशान नहीं मिलना भी एक आश्चर्य की बात है।
(फोटो:साभार गूगल)


