अनुपमा शर्मा:-
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के चतुर्थ सूक्त में इंद्र देव की स्तुति वंदना की गई है । यज्ञ को सम्पन्न कराने वाले, सोमरस का पान करने वाले, अपराजेय, शत्रुनाशक, समृद्धि कारक,शतायु देने वाले युद्ध में बल प्रदान करने वाले रूप में उनकी वंदना की गयी है।
सोम पीना यज्ञकर्ता के दृष्टिकोण से एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि यह कृपा की शुरुआत है। इस अवस्था तक पहुँचना कोई आसान बात नहीं है। इसके लिए आवाहनकर्ता की ओर से बहुत अधिक आत्म-प्रयास और आह्वान की आवश्यकता होती है। यज्ञ चक्र का पहला भाग आत्म-प्रयास का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरा भाग कृपा का प्रतिनिधित्व करता है। यज्ञ चक्र के पहले भाग के दौरान बार-बार आह्वान और शुद्धि के बाद, दूसरा भाग फलित हो सकता है।
ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल, सूक्त 4,
द्वितीय अनुवाक :: ऋषि :- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता :- इन्द्र। छन्द सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑। जु॒हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि॥
*सु॒रू॒प॒कृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑। जु॒हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि॥*
गायों का दोहन करने वालों के द्वारा, प्रतिदिन मधुर दूध प्रदान करने वाली गाय को जिस प्रकार बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपने संरक्षण के लिये सौन्दर्य पूर्ण यज्ञ कर्म सम्पन्न करने वाले इन्द्र देव का आह्वान करते है।
दुहने हेतु गौ को पुकारने वाले के समान, अपनी सुरक्षा के लिए हम उत्तम कर्मा इन्द्रदेव का आह्वान करते हैं।
[ऋग्वेद १.४.१]
*उप॑ नः॒ सव॒ना ग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब। गो॒दा इद्रे॒वतो॒ मदः॑॥*
सोम रस का पान करने वाले हे इन्द्रदेव! आप सोम ग्रहण करने हेतु हमारे सवन (यज्ञ, सोमरस का तर्पण और पान) यज्ञों में पधार कर, सोम रस पीने के बाद प्रसन्न होकर याजकों को यश, वैभव और गौंए प्रदान करें।
हे सोमपान इन्द्रदेव! सोमपान के लिए हमारे अनुष्ठान का सामिप्य करो। तुम समृद्धिवान हर्षित होकर हमको गवादि धन प्रदान करने वाले हो।
।[ऋग्वेद १.४.२]
*अथा॑ ते॒ अन्त॑मानां वि॒द्याम॑ सुमती॒नाम्। मा नो॒ अति॑ ख्य॒ आ ग॑हि॥*
सोमपान कर लेने के अनन्तर हे इंद्रदेव! हम आपके अत्यन्त समीपवर्त्ती श्रेष्ठ प्रज्ञावान पुरूषों की उपस्थिति में रहकर आपके विषय में अधिक ज्ञान प्राप्त करें। आप भी हमारे अतिरिक्त अन्य किसी के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट न करें अर्थात अपने विषय में न बताएँ
तुमसे निकट संपर्क प्राप्त कर, बुद्धिमानों के संपर्क में रहकर, हमने तुम्हें जाना है।
तुम हमारे विपरीत न रहना, तुम हमें न त्याग कर हमें प्राप्त हो जाओ।
।[ऋग्वेद १.४.३]
*परे॑हि॒ विग्र॒मस्तृ॑त॒मिन्द्रं॑ पृच्छा विप॒श्चित॑म्। यस्ते॒ सखि॑भ्य॒ आ वर॑म्॥*
हे ज्ञान वानों! आप उन विशिष्ट बुद्धि वाले, अपराजेय इन्द्रदेव के पास जाकर मित्रों बन्धुओं के लिये धन ऐश्वर्य के निमित्त प्रार्थना करें।
हे मनुष्यों! तुम अपराजित, कर्मवान, इन्द्रदेव के निकट जाकर अपने भाई-बन्धुओं के लिए महान समृद्धि को ग्रहण करो।
।[ऋग्वेद १.४.४]
*उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑॥*
इन्द्रदेव की उपासना करने वाले उपासक इन्द्रदेव के निन्दकों को यहाँ से अन्यत्र निकल जाने को कहें ताकि वे यहाँ से दूर हो जायें।
[ऋग्वेद १.४.५]
*उ॒त नः॑ सु॒भगाँ॑ अ॒रिर्वो॒चेयु॑र्दस्म कृ॒ष्टयः॑। स्यामेदिन्द्र॑स्य॒ शर्म॑णि॥*
हे इन्द्रदेव! हम आपके अनुग्रह से समस्त वैभव प्राप्त करें, जिससे देखने वाले सभी शत्रु और मित्र हमें सौभाग्यशाली समझें
हे शत्रु नाशक इन्द्र! तुम्हारे सम्पर्क में रहने से शत्रु और मित्र सभी हमको कीर्तिवान बनाते हैं।
।[ऋग्वेद १.४.६]
*एमा॒शुमा॒शवे॑ भर यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॒त॒यन्म॑न्द॒यत्स॑खम्॥*
(हे याजको!) यज्ञ को श्री सम्पन्न बनाने वाले, प्रसन्नता प्रदान करने वाले, मित्रों को आनन्द देने वाले, इस सोम रस को शीघ्र गामी इन्द्रदेव को अर्पित करें।[ऋग्वेद १.४.७]
*अ॒स्य पी॒त्वा श॑तक्रतो घ॒नो वृ॒त्राणा॑मभवः। प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म्॥*
हे सैकड़ों यज्ञ सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव! इस सोमरस को पीकर आप वृत्र-प्रमुख शत्रुओं के संहारक सिद्ध हुए हैं अत: आप संग्राम भूमि में वीर योद्दाओं की रक्षा करें।
यज्ञ को प्रकाशित करने वाले, आनन्दप्रद, प्रसन्नता पूर्वक तथा यज्ञ वाले इन्द्र! इस सोमपान से बलिष्ठ तुम, राक्षसों के नाशक हुए इसी पराक्रम से युद्ध में सेनाओं की रक्षा करते हो।
।[ऋग्वेद १.४.८]
*तं त्वा॒ वाजे॑षु वा॒जिनं॑ वा॒जया॑मः शतक्रतो। धना॑नामिन्द्र सा॒तये॑॥*
हे शतकर्मा इन्द्रदेव! युद्धों में बल प्रदान करने वाले आपको हम धन की प्राप्ति के लिये श्रेष्ठ हविष्यान्न अर्पित करते हैं।
धन रक्षक कष्टों को दूर करने वाले, अनुष्ठान करने वालों से स्नेह करने वाले इन्द्रदेव की वंदनाएँ गाओ।
[ऋग्वेद १.४.९]
यो रा॒यो॒३॒॑वनि॑र्म॒हान्त्सु॑पा॒रः सु॑न्व॒तः सखा॑। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥*
हे याजको! आप उन इन्द्रदेव के लिये स्तोत्रों का गान करें, जो धन के महान रक्षक, दु:खों को दूर करने वाले और याज्ञिकों से मित्रवत भाव रखने वाले हैं।
[ऋग्वेद १.४.१०]