रेखा शाह आरबी :-

चतुरी जी गांव के आदमी थे। खेत ,खलिहान, बागर, सिवान सब देखे भाले हुए इंसान थे  । गांव की ऊंची नीची पगडंडियों पर ही खेल कर उनका बचपन गुजरा था। जरूरते उन्हें खींचकर शहर में ले आई। वरना जितनी रौनक  किसी क्लब में पैसे देने के बाद आती है । उतनी  रौनक तो बिना एक पैसे खर्च किए अपने गांव के दोस्तों के साथ गांव के मचान पर ही आ जाती थी। लेकिन शहर में आना पड़ा क्योंकि गांव में खाली गेहूं उगता है रोटियां शहरों में मिलती हैं।
लेकिन उनके बच्चे ऊपर से   हिंदुस्तानी और मन से पूरे अंग्रेज है । उनके ऊपर पूरी तरह आजकल के इंग्लिश मीडियम स्कूलों की छाप है। घोड़े की खाल में गधे छिपे हुए है। उनका व्यक्तित्व बिगाड़ने में इंग्लिश मीडियम स्कूलों ने पूरी तरह अपनी निष्पाप भूमिका निभाई है । ना उन्हें इधर का छोड़ा ना उधर का छोड़ा बेचारे हिंदी पहनते हैं और इंग्लिश पोटी करते हैं। पर समाज में रहना है तो समाज के अनुसार चलना मजबूरी है।
खैर एक दिन चतुरी जी का बेटा उनके पास उछलता कूदता हुआ आया और बोला–” पापा पापा मुझे ऑनलाइन एक आर्डर मंगवाना है ₹400 मेरे खाते में भेज दीजिए”।
चतुरी जी तो ऑनलाइन का नाम सुनते ही पिन-पिना जाते हैं। लेकिन उनकी सारी रौबदारी  औलादो के आगे थोड़े ना चलती हैं । सारी दुनिया से जीतने वाला इंसान भी अपनी औलाद के आगे हार मान के बैठा है। तो उनकी क्या बिसात थी। उन्होंने भी मान लिया जो दुनिया ने आजकल मान लिया है। अतः उन्होंने संयम बररते हुए पूछा–” क्या मंगवाना है?”।
आजकल की बहस करने वाली औलाद के जैसे झुझलाते हुए उनके आधे हिंदुस्तानी और आधे अंग्रेज बेटे ने कहा–” पापा आपको तो हर बात का हिसाब चाहिए.. खैर आपको बता ही देता हूं मुझे ऑर्गेनिक लुफा मंगवाना है”।
चतुरी  जी ने सर खुजलाते हुए पूछा-” यह ऑर्गेनिक लुफा क्या होता है?”।
“इसीलिए तो कह रहा था आप सीधे पैसे दे दीजिए.. आजकल का रहन-सहन और फैशन आपको नहीं पता है आप जानकर क्या करेंगे”।
सारी दुनिया पर रोब जमाने वाले चतुरी जी बड़े ही मुलायम स्वर में बोले –“बेटे पैसे पेड़ पर नहीं लगते हैं पहले मुझे जानना है ऑर्गेनिक लुफा क्या होता है”।
भुनभुनाते हुए चतुरी जी के बेटे ने अपना लैपटॉप उठा लाया और उसमें ऑर्गेनिक लूफा का पिक्चर दिखाते हुए कहा–” इसे देखो पापा मुझे यह चाहिए इसे ऑर्गेनिक लूफा कहते हैं यह बॉडी साफ करने के लिए बहुत सॉफ्ट और कमाल की ऑर्गेनिक प्रोडक्ट है आजकल बहुत ट्रेंड में भी है.. सारे अमीर आदमी यही ऑर्गेनिक प्रोडक्ट ही इस्तेमाल करते हैं इसीलिए मुझे भी यह चाहिए”।
फोटो देखते ही चतुरी जी की आंखें दो से चार हो गई। और वह बेटे का चेहरा बड़े ध्यान से देखने लगे और अपना माथा पकड़ते हुए अपनी जेब में हाथ डालकर पन्द्रह रूपये   निकाले और बेटे के हाथ में पकड़ाते हुए बोले–” बेटा यह पकड़ो ₹15 और इस ₹15 से रिक्शा  पकड़ो पास के गांव में जाओ गांव में नीम लगा होगा और उस पर तुम्हारा ऑर्गेनिक लुफा  लटक रहा होगा किसी से भी कहना कि मुझे घेवड़े का खुज्जा  चाहिए वह तुम्हें तुम्हारा ₹400 वाला ऑर्गेनिक लूफा  तोड़ कर दे देगा  और वह भी बिना एक पैसे लिए हुए”।
” ऐसा कैसे हो सकता है पापा की ऑर्गेनिक लुफा आपको गांव जैसे जगह में मिले..” बेटे ने थोड़ा असमंजस से कहा।
“बेटा.. जिस ऑर्गेनिक लुफा की महिमा पुराण तुम गा रहे हो.. वह हमारे गांव का घेवड़े का खुज्जा है और उससे गाय भैंस जैसे जानवर को मलमल कर नहलाया जाता है.. ताकि उनके शरीर का मैल निकल सके.. वैसे तुम सब आजकल की औलादे किसी जानवर से कम थोड़े ना हो”… आखरी लाइन चतुरी जी ने मुंह में धीमे से बडबडाते हुए कहा। जिससे कि बेटा ना सुन सके।
बेटे के चेहरे का रंग उड़ चुका था वह अब रिस्पेक्ट तथा नॉर्मल स्वर में बोला–” मुझे नहीं पता था पापा आप लोग इतने एडवांस चीजो के बारे में  भी  जानते हैं.. मुझे नहीं  मंगाना है ऑनलाइन से लूफा .. लेकिन आप ही कोई सजेशन दीजिए आखिर लुफा की जगह पर आपलोग  क्या इस्तेमाल करते  है”।
” बेटा.. इतना सोचने की जरूरत नहीं है एक कॉटन का रुमाल लो और उसे लुफा के जैसे इस्तेमाल करो.. ना उससे सस्ता कुछ है ना उससे बढ़िया कुछ है.. और काम भी एकदम तुम्हारी भाषा में यूनिक और ऑर्गेनिक रहेगा”।
बेटे का धीमे-धीमे हिलता हुआ सर बता रहा था कि वह अपने पापा के विचारों से सहमत हो चुका है और बहुत कुछ सोच रहा है।

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.