अनुपमा शर्मा:

योग एक अति प्राचीन परम्परा है, जिसकी उत्पत्ति भारत देश से मानी जाती है। योग शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द “युज” से हुई है। ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले योग की शुरुआत भगवान शिव ने की थी, इसलिए भगवान शिव को “आदियोगी” भी कहा जाता है। इसके बाद भगवान शिव ने सप्तऋषि को योग का ज्ञान दिया और बाद में ऋषियों द्वारा योग का प्रचार किया गया।
योग का शाब्दिक अर्थ है– संघ या जुड़ाव (जीवात्मा तथा परमात्मा का मिलन) । जो विद्या इस गुह्य ज्ञान को प्राप्त करने का मार्ग बतलाती हे, वह योगशास्त्र कहलाती है ।
योग एक विज्ञान है जिससे हम द्वैत में एकता लाते हैं। यह योग कहीं बिकता नहीं तो उसे प्राप्त करने का साधन केवल यही है, जिसका उपदेश आनन्दकन्द यदुचन्द नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र ने श्रीमद्भागवतम, उद्धव गीता में,स्पष्ट रूप से योग की एक सरल परिभाषा इस प्रकार प्रदान करते हैं
एतावन योग आदिष्टो
मच्छ्यैः सनकादिभि:
सर्वतो मन आक्ष्य मय्य
अधावश्यते यथा
सनत-कुमार की अध्यक्षता में मेरे भक्तों द्वारा सिखाया गया योग, बस यह है मन को अन्य सभी वस्तुओं से हटाकर, उसे सीधे और उचित रूप से मुझ (भगवान कृष्ण) में लीन करना चाहिए।
श्रीमद भागवतम 11.13.14
साथ ही, भगवद गीता में, भगवान कृष्ण अन्यत्र इस प्रकार कहते हैं
योगिनाम अपि सर्वेषाम
मदगतेनान्तरआत्मना
श्रद्धावान भजते यो माम
मे युक्ततमो मत:
सभी योगियों में, जो महान विश्वास के साथ हमेशा मुझ में रहता है, मेरे बारे में अपने भीतर सोचता है और मुझे पारलौकिक प्रेमपूर्ण सेवा प्रदान करता है – वह योग में मेरे साथ सबसे घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है और सबसे ऊंचा है। यही मेरा मत है।
भगवद गीता 6.47
एक अन्य श्लोक में भी कहा गया है
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः
( गीता 4/34 )
अर्थात् उस योग साधन विधि को विनयपूर्वक विविध प्रकार के प्रश्नों द्वारा उस विषय के विशेषज्ञ गुरु से उनकी सेवा करते हुए समय-समय पर पूछते रहो वे तत्वदर्शी गुरुजन तुम्हें उदारता पूर्वक ज्ञान का उपदेश करेंगे ।
🔴 योगशास्त्र की निम्न सूक्ति योग का गूढ़ महत्व बताने के लिए पर्याप्त है :-
प्राणापाननादबिन्दुजीवात्मपरमात्मनाम्
मेलनाद घटते यस्मात्तस्माद् वै घट उच्यते
आमकुम्भमिवाऽम्भःस्थं जीर्यमाणं सदा घटम्
योगानलेन संदाह्म घटशुद्धिं समाचरेत्
हठयोगेन प्रथमं जीर्यमाणमिमां तनुम्
द्रढयन् सूक्ष्मदेहं वै कुर्याद् योगयुजः पुनः
स्थूल सूक्ष्मस्य देहो वै परिणामान्तरं यतः
कादिवर्णान् समभ्यस्य शास्त्रज्ञानं यथाक्रमम् ।।
यथोपलभ्यते तद्वत् स्थूलदेहस्य साधनैः
योगेन मनसो योगो हठयोगः प्रकीर्तितः
( योगशास्त्र )
प्राण, अपान, नाद, बिन्दु जीवात्मा और परमात्मा के मेल से उत्पन्न होने के कारण स्थूल शरीर का नाम घट है। जलमध्य स्थित आम कुम्भ की तरह शरीर रूपी यह घट सदा जीर्ण ही रहा करता है । इसलिए योगरूपी अनल के द्वारा दग्ध करके इस घट की शुद्धि करनी चाहिए। जीर्णभाव युक्त स्थूल शरीर को हठयोग के द्वारा दृढ़ करके सूक्ष्म शरीर को भी योगानुकूल किया जाता है । स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर का ही परिणाम मात्र है । इसलिए जिस प्रकार ककारादि वर्णों के अभ्यास द्वारा क्रमशः शास्त्र ज्ञान का लाभ होता है, उसी प्रकार जिन कौशलपूर्ण क्रियाओं के द्वारा प्रथमतः स्थूल शरीर को वश में लाकर क्रमशः सूक्ष्म शरीर पर आधिपत्य स्थापन पूर्वक चित्तवृत्ति का निरोध किया जा सकता है, उन साधनों को हटयोग की संज्ञा दी गयी है।
षट्कर्मासनमुद्राः प्रत्याहारश्च प्राणसंयमः
ध्यानसमाधी सप्तैवाङ्गानि स्युर्हठस्य योगस्य |
( योगशास्त्र )
षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान तथा समाकि ये हठयोग के सात अंग हैं ।

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.