अनुपमा शर्मा:


दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में स्थित तंजावुर के पर्यटक स्थलों को देखने एक बार जरूर जाएँ।
तंजावुर तमिलनाडु में स्थित एक बहुत पुराना नगर है। एक समय में यह चोल वंशों की राजधानी के रूप में मशहूर हुआ करता था। यहाँ निर्मित मंदिर, किले व अन्य स्थल की वास्तुकला देखने लायक है। फिलहाल यह जगह तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से लगभग 218 किमी दूर कावेरी नदी के तट पर स्थित है। यहाँ कपास मिल, पारंपरिक हथकरघा और वीणा निर्माण जैसी कई औद्योगिक गतिविधियां हैं, जो इस नगर की समृद्धि को प्रदर्शित करती हुई नजर आती हैं। तंजावुर को तमिलनाडु राज्य का ‘धान का कटोरा’ भी कहा जाता है। धान के अलावा यहाँ नारियल, केला, हरा चना, मक्का और गन्ने जैसी फसलें भी उगाई जाती हैं।
तंजावुर को तंजौर के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ लगभग 75 छोटे-बड़े मंदिर हैं  जिनकी वास्तुकला देखकर सभी आश्चर्य चकित रह जाएंगे। इसलिए तंजावुर को मंदिरों व कला की नगरी भी कहते हैं। आइए जानें यहाँ के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों के बारे में-
*बृहदेश्वर मंदिर*
भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में चोल शासक राजराजा के द्वारा करवाया गया था। बृहदेश्वर मंदिर यहाँ के सबसे बड़े मंदिरों व प्रमुख आकर्षणों में शामिल है। इस मंदिर को एक ही पहाड़ के टुकड़ों को काटकर बनाया गया है। द्रविड़ शैली में निर्मित इसकी वास्तुकला अतिमनोरम है  जो पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस मंदिर की ऊँचाई लगभग 190 फीट है। मंदिर के अंदर विशाल शिवलिंग और विशाल नंदी की मुर्ति है। इसे राजराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। हर साल मई के महीने में इस मंदिर में एक वार्षिक उत्सव का आयोजन किया जाता है जिसे देखने के लिए  भीड़ होती है। इस मंदिर को ‘महानतम चोल मंदिर’ के रूप में यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल में भी शामिल किया है।
*विजयनगर किला*
विजयनगर किला, बृहदेश्वर मंदिर के उत्तर-पूर्व में दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस किले का निर्माण 16वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। इसके अंदर तंजौर पैलेस, संगीत महल, तंजौर आर्ट गैलरी, शिव गंगा गार्डन और संगीत महल पुस्तकालय हैं, जो कला, वास्तुकला और इतिहास में रुचि रखने वाले पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यहाँ स्थित तंजौर पैलेस की सुंदरता देखने लायक है। इसे मराठा शासकों के द्वारा बनवाया गया था। इस किले का अधिकांश हिस्सा अब खंडहर हो चुका है, लेकिन इसके कई हिस्से पर्यटकों के लिए खुले हुए हैं।
*सरस्वती महल पुस्तकालय*
तंजावुर में स्थित सरस्वती महल पुस्तकालय, एशिया के सबसे पुराने पुस्तकालय में से एक माना जाता है। यहाँ खजूर के पत्तों पर तमिल, मराठी, तेलुगु और अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओं में लिखी पाण्डुलिपियाँ और किताबें मौजूद हैं। इस पुस्तकालय का निर्माण 1535-1675 ई. में नायक शासकों ने करवाया था। फिर मराठा शासकों ने इसे निखारा। 1918 के बाद से यह पुस्तकालय तमिलनाडु राज्य के नियंत्रण में है। यह पुस्तकालय आम लोगों के लिए खुला हुआ है। इस पुस्तकालय के अंदर एक संग्रहालय भी है, जो किताबों के महत्व को प्रदर्शित करता है। वर्तमान समय में लोग डिजिटल किताबों की ओर बढ़ रहे हैं और इसकी सुविधा भी यहाँ इस पुस्तकालय में उपलब्ध है।
इसके अलावा तंजावुर में मनोर किला, मुरुगन मंदिर, स्वामी मलाई मंदिर, बंगारू कामाक्षी अम्मन मंदिर, अलंगुडी गुरु मंदिर, थानजई ममानी कोइल, चंद्र भगवान मंदिर और भी कई दार्शनिक स्थल हैं, जिन्हें देखने आप जा सकते हैं। घूमने के अलावा आप यहां के लजीज व्यंजनों का स्वाद ले सकते हैं, जैसे- चावल, सांभर, रसम, करी, दही, अचार, डोसा, इडली, उपमा, केसरी, परोटा, पोंगल, पैसम, स्वीट पोंगल, आदि। आपको बता दें कि अगर आप रेलवे मार्ग से यहाँ जाना चाहते हैं तो तिरुचिरापल्ली रेलवे स्टेशन यहां का समीप रेलवे स्टेशन है और अगर फ्लाइट से जा रहे हैं तो तिरुचिरापल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा से आप तंजावुर पहुंच सकते हैं।
तमिलनाडु के तंजावूर से लगभग ८० किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी नगरी है – गंगईकोंड चोलपुरम। यह गाँव, अरियलूर जिले में जयनकोंडम नगरी के समीप स्थित है। चोल सम्राट राजेंद्र प्रथम ने सन् १०२५ में इसे अपनी राजधानी बनाई थी। यह लगभग २५० वर्षों तक चोल राजवंश की राजधानी थी।
मैं दक्षिण भारत के मंदिरों की यात्रा के अंतर्गत चोल मंदिरों का भ्रमण रही थी। इसके अंतर्गत मैं चिदंबरम, तंजावुर, गंगईकोंड चोलपुरम, दारासुरम तथा तिरुचिरापल्ली के मंदिरों के दर्शन कर रही थी। एक ओर तमिलनाडु की सड़कों पर एक मंदिर से दूसरे मंदिर जाते हुए चारों ओर के हरियाली से समृद्ध परिवेश मुझे आनंदित कर रहा था  तो दूसरी ओर तमिलनाडु के लोकप्रिय व्यंजन कर्ड राइस,पोंगल, चटपटा इमली राइस, लेमन राइस, इडली साम्भर मेरे शरीर को स्फूर्ति प्रदान कर रहे थे
गंगईकोंड राजेंद्र चोल (प्रथम)
गंगईकोंड नगरी की स्थापना चोल सम्राट राजेंद्र (प्रथम) ने की थी जो सुप्रसिद्ध चोल सम्राट राजराजा (प्रथम) के पुत्र थे। उनकी माता चेर राजकुमारी त्रिभुवन महादेवी थीं । चोल साम्राज्य की वंशावली रेखांकित की जाए तो चोल सम्राट सूर्य वंश के वंशज हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे अयोध्या के श्री राम।
चोल सम्राट राजेंद्र (प्रथम) का राजतिलक सन् १०१६ में हुआ था। वर्तमान भौगोलिक स्थिति के अनुसार तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्णाटक के कुछ क्षेत्र एवं श्री लंका उनके साम्राज्य के भाग थे। उन्होंने सन् १०५४ तक अर्थात् अपने मृत्युकाल तक शासन किया था।
अपने राज्यकाल में उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए तुंगभद्र, केरल, मालदीव व सुमात्रा को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया तथा अनेक गौरवशाली उपाधियाँ अर्जित कीं थी। अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से महासागरों को पार करते हुए दूर-सुदूर के अनेक राज्यों से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए। उन्होंने अपने साम्राज्य को दक्षिण भारत का सर्व शक्तिशाली साम्राज्य बना दिया था।
*गंगईकोंड चोलपुरम*
गंगईकोंड चोलपुरम  इस नाम की पृष्ठभूमि में एक रोचक कथा है। एक समय राजेन्द्र चोल की विजय यात्रा पवित्र नदी गंगा तक पहुँची  उन्होंने बंगाल के राजाओं को परास्त किया तथा अपनी मातृभूमि को पवित्र करने के लिए वहाँ से गंगा का पावन जल लेकर वापिस आये। उनके इस पराक्रम के उपरांत उन्होंने ‘गंगईकोंड चोल’ की उपाधि अर्जित की तथा इसी नाम से एक नवीन नगरी की स्थापना की। उसका नाम पड़ा, गंगईकोंड चोलपुरम।
अपनी पराक्रमी विजयों के पश्चात् उनके द्वारा अर्जित अन्य उपाधियाँ हैं, मधुरान्तक, उत्तम चोल, वीर चोल, मुदिगोंडा चोल, पंडित चोल तथा कदरम कोंडन।
सन् १०२५ से लगभग २५० वर्षों तक गंगईकोंड चोलवंश की राजधानी रही। इस सम्राज्यकाल में तुंगभद्र के तटों से लेकर श्री लंका तक, सम्पूर्ण दक्षिण भारत चोल सम्राटों के अधिपत्य में था। सम्राट राजेन्द्र चोल के पश्चात भी अधिकांश चोल राजाओं का राजतिलक इसी धरती पर हुआ तथा यहीं से उन्होंने राज्य किया। १३वीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर पांड्य साम्राज्य ने अधिपत्य स्थापित कर लिया।
गंगईकोंड नगरी की स्थापना एक राजधानी के रूप में हुई थी। इसी कारण दो सुदृढ़ भित्तियों द्वारा इसकी किलेबंदी की गयी थी। तमिल साहित्यों के अनुसार सम्पूर्ण नगरी में सड़कों व मार्गों की उत्तम व्यवस्था थी। राजा का भव्य बहुतलीय आवास स्वयं में एक उत्कर्ष स्थापत्य का उदहारण था। इसके निर्माण में पकी हुई ईंटों का प्रयोग किया गया था। इसमें काष्ठ के उत्कीर्णित स्तंभ थे तथा तलों पर ग्रेनाईट की शिलाएं बिछाई गयी थीं।
सम्राट राजेन्द्र ने यहाँ चोल गंगम नामक एक सरोवर का भी निर्माण कराया था। इस सरोवर को अब पोंन्नेरी सरोवर कहते हैं। यह सरोवर कावेरी नदी द्वारा पोषित था। सम्राट राजेन्द्र ने इस सरोवर में गंगा नदी का जल भी मिलाया था।
वर्तमान में गंगईकोंड नगरी में केवल गंगईकोंड चोलपुरम बृहदीश्वरमंदिर ही शेष है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी संरचनाओं के ध्वंसावशेष ही रह गए हैं।
गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर
ऐसा कहा जाता है कि किसी समय गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर तंजावुर के बड़े मंदिर अथवा तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर की तुलना में अधिक विशाल था। गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर गंगईकोंड नगरी के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित था, वहीं राजा का शाही निवास नगर के मधोमध स्थित था। ऐसा माना जाता है कि नगर के पश्चिमी भाग में एक विष्णु मंदिर था किन्तु अब वह अस्तित्वहीन है
जैसे ही आप गंगईकोंड चोलपुरम के बृहदीश्वर मंदिर पहुँचेंगे, वहाँ से दूर दूर तक दृष्टि दौड़ाने पर आप पायेंगे कि यह मंदिर वहाँ स्थित लगभग इकलौती संरचना शेष है।
उत्तर दिशा में स्थित एक संकरे मार्ग से हम इस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। तत्क्षण आपकी दृष्टि मंदिर के विशाल विमान पर पड़ेगी जिसे शिखर भी कहते हैं। इसका आकार लगभग शुण्डाकार है। इसकी ऊँचाई १६० फीट है जो तंजावुर के बड़े मंदिर के विमान से अपेक्षाकृत किंचित लघु है।
*गोपुरम*
मंदिर के गोपुरम एवं  भित्तियाँ अब अस्तित्व में नहीं हैं। सन् १८३६ में जब यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधिपत्य में था  तब अंग्रेजों ने मंदिर की भित्तियों एवं गोपुरम को गिरा कर उसके शिलाखण्डों से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक बाँध का निर्माण किया था। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का गोपुरम ठीक वैसा ही था जैसा तंजावुर के बड़े मंदिर का है। यहाँ के गोपुरम का आधारभाग साधारण था जिसके समीप केवल द्वारपाल की प्रतिमाएं रखीं थी। जहाँ अन्य चोल मंदिरों में दो गोपुरम होते थे, इस मंदिर में केवल एक गोपुरम था जो परिसर के पूर्व दिशा में स्थित था।
प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो द्वारपालों की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। उन्हें देख पूर्वकाल के प्रवेश द्वारों का अनुमान लगाया जा सकता है। गर्भगृह के पार्श्वद्वारों के दोनों ओर भी द्वारपालों के विशाल शिल्प हैं। इन पार्श्वद्वारों के समक्ष कुछ सोपान हैं जो चोल शैली के मंदिरों की विशिष्टता है।
मुख्य मंदिर के चारों ओर कुछ लघु मंदिर हैं। ये मंदिर देवी, सिंह सहित दुर्गा, चंडिकेश्वर, गणेश तथा नंदी के हैं। परिसर में आप एक क्षतिग्रस्त मंडप देखेंगे जिसका नाम अलंकार मंडप है।
मंदिर के आलों में दक्षिणमूर्ति, लिंगोद्भव, गणेश, नटराज, भिक्षान्तक, कार्तिकेय, दुर्गा, अर्धनारीश्वर तथा भैरवों के शिल्प हैं।
भित्ति के निचले अनुप्रस्थ पर स्थित देवकुलिकाओं में भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाती प्रतिमाएं हैं। साथ ही गणेश, विष्णु, सुब्रमण्यम, ब्रह्मा, भैरव, लक्ष्मी, सरस्वती तथा दुर्गा की प्रतिमाएं भी हैं। ऊपरी अनुप्रस्थ पर स्थित देवकुलिकाओं में भी शिव की प्रतिमाओं की प्राधान्यता है। शिव अपने ११ रुद्रों तथा अष्टदिशाओं के अधिष्ठात्र दिकपालों के साथ विराजमान हैं। सभी रूद्र अपने चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं जिनके ऊपरी दो हाथों में परशु तथा मृग हैं। वहीं निचले दो हाथ अभय एवं वर मुद्रा में हैं।
*श्री विमान*
मुख्य मंदिर के तीन भाग हैं, श्री विमान, मंडप तथा मुखमंडप अथवा ड्योढ़ी।
विशेषज्ञों ने इस विमान के ९ भाग स्पष्ट रूप से दर्शायें हैं। वे इस प्रकार हैं:
उप पीठ अथवा भू-गृह
अधिष्ठान अथवा आधार
भित्ति
प्रस्तर
हर अथवा देवकुलिका
तल
ग्रीवा
शिखर
स्तुपिका अथवा कलश
उप पीठ पर सिंह तथा पौराणिक जीव-जंतुओं की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। अधिष्ठान कमल के आकार में निर्मित है। मुख्य भित्ति दो अनुप्रस्थ भागों में विभाजित है। इसके तीन पार्श्व भागों में आले निर्मित हैं। लम्बवत खाँचो द्वारा भित्तियों की सतहों को चौकोर भागों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार भित्तियों की सतहों पर अनेक देवकुलिकाएं अथवा अतिलघु मंदिर बन गए हैं जिनके भीतर देवी-देवताओं की प्रतिमाएं रखी हैं।
भित्ति के निचले अनुप्रस्थ पर स्थित देवकुलिकाओं में भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाती प्रतिमाएं हैं। साथ ही गणेश, विष्णु, सुब्रमण्यम, ब्रह्मा, भैरव, लक्ष्मी, सरस्वती तथा दुर्गा की प्रतिमाएं भी हैं। ऊपरी अनुप्रस्थ पर स्थित देवकुलिकाओं में भी शिव की प्रतिमाओं की प्राधान्यता है। शिव अपने ११ रुद्रों तथा अष्टदिशाओं के अधिष्ठात्र दिकपालों के साथ विराजमान हैं। सभी रूद्र अपने चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं जिनके ऊपरी दो हाथों में परशु तथा मृग हैं। वहीं निचले दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में हैं।
*मुक्तांगन में नंदी*
इनके ऊपर शिखर के ९ तल हैं। शिखर का आकर एवं उस पर की गयी शिल्पकारी उसे शुण्डाकार रूप प्रदान करते हैं। ग्रीवा के चारों दिशाओं में आले हैं जिनके भीतर वृषभ की आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। शिखर के शीर्ष पर एक विशाल शिलाखंड है जिसके ऊपर कमल की कली के आकार का सुनहरा कलश स्थापित है। यह कलश कदाचित स्वर्णकलश रहा होगा।
गर्भगृह
मंदिर के भीतर गर्भगृह की परिक्रमा करने के लिए दो पथ हैं । एक प्रथम तल पर तथा एक दूसरे तल पर। तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के विपरीत इस मंदिर में परिक्रमा पथ की भित्तियों पर किसी भी प्रकार के चित्र नहीं हैं।
गर्भगृह के भीतर १३ फीट ऊँचा एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। ऐसा माना जाता है कि यह शिवलिंग दक्षिण भारत का विशालतम शिवलिंग है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर संरक्षण करते दो द्वारपाल हैं।
*मंदिर की काँस्य वस्तुएँ*
बृहदीश्वर मंदिर में चोलकाल की कुछ दुर्लभ वस्तुओं का अनुपम संग्रह है। उनमें से कुछ राजा राजेन्द्र (प्रथम) के शासनकाल से भी संबंधित हैं। इसका अर्थ है कि वे उतने ही पुरातन हैं जितना कि यह मंदिर! उन चोल काँस्य वस्तुओं में निम्न मूर्तियाँ प्रमुख हैं।
भोगशक्ति
दुर्गा
अधिकारनंदी
सोमस्कन्द
सुब्रमन्य
वृषवाहन
चोल काल का विशालतम मंदिर
गंगईकोंड चोलपुरम मंदिर को चोल वंश द्वारा निर्मित विशालतम मंदिरों में से एक माना जाता है। यह तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर से साम्य रखता है। इसकी आयु तंजावुर के मंदिर से एक पीढ़ी कम है। मेरे अनुमान से एक पीढ़ी पश्चात उनका विचार अवश्य तंजावुर मंदिर की तुलना में अधिक विशाल एवं अधिक शक्तिशाली मंदिर के निर्माण का रहा होगा। बहुधा यह विचार नवीन राजा की भव्यता एवं शक्ति को गत पीढ़ी की तुलना में श्रेष्ठ दर्शाने की मंशा से उत्पन्न होता है।
तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर में जो उर्जा एवं भाव अनुभव में आते हैं, वो कहीं ना कहीं इस मंदिर में अनुभव में नहीं आते हैं। संग्रहालयविद्, कला इतिहासकार एवं पुरालेखविद् श्री शिवराममूर्ती लिखते हैं, यह मंदिर अत्यंत पुरुषप्रधान है वहीं तंजावुर का मंदिर अपने उत्तम अनुपातों के चलते स्त्रीसुलभ प्रतीत होता है।
गगईकोंड चोलपुरम मंदिर परिसर के भीतर अन्य मंदिरों के स्थान भी वही हैं जैसे कि तंजावुर मंदिर परिसर के भीतर हैं। मंदिर का परिसर अत्यंत विशाल व विस्तृत है जिससे ना केवल संरक्षणदाता सम्राट के मान-प्रतिष्ठा का अनुमान लगाया जा सकता है अपितु यह भी जाना जा सकता है कि प्राचीन काल में सामान्य जन-जीवन भी मंदिर के चारों ओर ही केन्द्रित रहता था।
भित्तियों पर उत्कीर्णित छवियों में भगवान शिव के अनेक अवतार हैं जिन्हें भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है। भित्तियों के रिक्त भाग अपूर्ण कार्य की ओर संकेत करते हैं तथा अन्य चोल मंदिरों की तुलना में उत्कीर्णित शिल्पों की सूक्षमता को किंचित निम्न स्तर पर लाते हैं। एक मंडप की भीतरी छत पर खाँचें हैं जिनमें कुछ खांचों में चित्रकारी के अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो अन्य खाँचों के चित्रों को काल ने निगल लिया है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत आने के कारण यहाँ के पुरोहितों की नियुक्ति भी उन्होंने ही की है। इन पुरोहितों ने यह पद पारंपरिक वंशानुगत रीति से नहीं प्राप्त किया है।
मंदिर परिसर में सुन्दर उद्यान एवं घास के मैदान हैं।
यह मंदिर दैन्दिनी पूजा-अनुष्ठानों के साथ एक जीवंत मंदिर है। किन्तु मंदिर के आसपास सामान्य जन-जीवन का अभाव खटकता है। जैसी उर्जा एवं भक्ति की तरंगें तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर में अनुभव में आती हैं, वैसा अनुभव यहाँ प्राप्त नहीं होता है। इससे मेरे मन में यह विचार आया कि मंदिर को कौन सजीव बनाता है? मंदिर के भीतर विराजमान भगवान अथवा भक्ति एवं श्रद्धा से ओतप्रोत भक्तगण?
*शिलालेख*
इस मंदिर से १२ सम्पूर्ण एवं अनेक भंगित शिलालेख प्राप्त हुए हैं। एक शिलालेख में उन गाँवों से प्राप्त वित्तीय अनुदानों का उल्लेख है जिन पर इस मंदिर के कार्यभार का उत्तरदायित्व था। इन शिलालेखों से चोलवंश के शासनकाल में पालित प्रशासनिक एवं राजस्व प्रणाली का भी अनुमान प्राप्त होता है।
शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का नाम गंगईकोंड चोलेश्वरम था।
यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल
गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। यह चोल वंश के राजाओं द्वारा निर्मित महान जीवंत चोल मंदिरों में से एक है। इसी कारण यह मंदिर तमिलनाडु के प्रमुख पर्यटन आकर्षणों में सम्मिलित है। चोल वंश के राजाओं द्वारा निर्मित महान जीवंत चोल मंदिरों में अन्य प्रमुख मंदिर हैं, तंजावुर का बड़ा मंदिर अर्थात् तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर तथा दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर।
*गंगईकोंड चोलपुरम के लिए यात्रा सुझाव*
गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर तंजावुर से लगभग ७५ किलोमीटर तथा पुदुचेरी से लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर है।
तंजावुर अथवा पुदुचेरी में ठहरने एवं भोजन की सुविधाएं अधिक सुलभ व उत्तम हैं। अतः आप तंजावुर अथवा पुदुचेरी से एक दिवसीय यात्रा के रूप में यहाँ आ सकते हैं।
पत्तदकल के मंदिर के पश्चात् यह भारत का दूसरा ऐसा विश्व धरोहर स्थल है जहाँ मंदिर स्थल के आसपास कोई भी जीवन संबंधी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। आप अपने साथ भोजन एवं पेयजल अवश्य ले जाएँ।
आप यहाँ मंदिर एवं आसपास के परिदृश्यों का अवलोकन करते हुए कुछ घण्टों का समय आसानी से व्यतीत कर सकते हैं।

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.