अनुपमा शर्मा:
इन चारों वेदों के द्वारा हमें सार्थक जीवन जीने की शिक्षा मिलती है । जिस प्रकार चार वेद हैं वैसे ही जीवन के चार चरण (आश्रम)हैं
*जीवन के चार चरण…*
वेदों में सार्थक जीवन के लिए चार चरणों की सलाह दी गई है। ये चरण मानव जीवन के समुचित विकास और अधिकतम लाभ को सुनिश्चित करते हैं।
*ब्रह्मचर्य* (1-25 वर्ष): 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। इस अवस्था में व्यक्ति को मेहनती विद्यार्थी बनना चाहिए तथा अपना समय अध्ययन और ज्ञानार्जन में व्यतीत करना चाहिए। उसे स्वाद, निद्रा और मैथुन जैसे सभी भोगों से दूर रहना चाहिए।
*गृहस्थ* (26-50):  यह वह अवस्था है जिसमें गृहस्थ के रूप में ईमानदारी और कड़ी मेहनत के माध्यम से धन अर्जित करना, सुखों का आनंद लेना और सामाजिक जीवन जीना चाहिए। विवाह करना चाहिए, धन कमाना चाहिए, समाज में योगदान देना चाहिए और बच्चों का पालन-पोषण करना चाहिए।
*वानप्रस्थ* (51-75): इस अवस्था में व्यक्ति को मूल जीवन शैली के साथ एकांत में रहना शुरू करना चाहिए और भौतिकवादी प्रकृति के सभी सुखों और संपत्तियों का त्याग करना चाहिए। व्यक्ति को अपनी पत्नी के साथ प्रकृति में रहना शुरू करना चाहिए। इसका लक्ष्य मूल जीवन और एकांत जीवन के माध्यम से पाँच इंद्रियों पर नियंत्रण करना है।
*संन्यास* (76 से आगे): इस अवस्था में व्यक्ति को अपनी सारी संपत्ति और आसक्ति त्यागकर संन्यासी बन जाना चाहिए। वह या तो संघ में शामिल हो सकता है या फिर एक घुमक्कड़ साधु बन सकता है ।
*ऋग्वेद का प्रथम श्लोक है-:*
*अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्।*
*होता॑रं रत्न॒धात॑मम्॥*
इस श्लोक के-ऋषि-मधुच्छनंदा, देवता-अग्नि, छंद-गायत्री, स्वर-षड्जकृृ हैं।
*अग्नि -* संंपूर्ण ब्रह्मांड को गति देने वाला सब जीवों की उत्पत्ति व उन्नति का साधक परमेश्वर।
ईले– स्तुति ( प्रार्थना, उपासना) करते हैं।
*पुरोहितम् -* पुरः हितम्- जो सृष्टि से पूर्व (उत्पत्ति के समय से पहले से) विद्यमान हैं अर्थात् जो स्वयंभू है।
*यज्ञस्य -* यज्ञ हवन युक्त श्रेष्ठ वैदिक कार्य, विद्वानों का सत्कार, ज्ञानदान जैसे उत्तम कार्य।
*देवम् -* देने वाला देवता है और दिव्य गुणों में श्रेष्ठ है (क्या देने वाला सब पदार्थों को प्रकाश देने वाला)
*ऋत्विजम् -* बारंबार उत्पत्ति के समय सूक्ष्म से स्थूल सृष्टि को रचने वाला जो हर समय एवं ऋतु में पूज्य है अर्थात ईश्वर स्वरूप है।
*होतारम्-* जो जगत के सब जीवों को सब पदार्थ देने वाला है और प्रलय के समय सारे ब्रह्माण्ड को अपने अंदर समाहित करने वाला है।
*रत्न-* सब उत्तम पदार्थों जैसे स्वर्ण आदि रत्नों को, रमणीय वस्तुओं को( जैसे शरीर)।
*धातमम् -* धारण कराने वाला है।
अर्थ -हे अग्नि स्वरूप परमात्मा इस यज्ञ के द्वारा मैं आपकी आराधना करता हूँ या करती हूँ । सृष्टि के जन्म से पूर्व भी आप थे और आपके अग्नि रूप से ही सृष्टि की रचना (जन्म) हुई है। हे अग्नि रूप परमात्मा आप सब कुछ देने वाले हैं। आप प्रत्येक समय एवं प्रत्येक ऋतु में पूज्य हैं ।आप ही जगत के सब जीवों को सब पदार्थ देने वाले हैं और प्रलय में संपूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने में समाहित (समेटने) करने वाले हैं। हे परमात्मा आप ही सब उत्तम पदार्थों (रत्न, शरीर) को धारण कराने वाले हैं। ||||
(जारी…)

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.