अनुपमा शर्मा


ऋग्वेद की शुरुआत परमात्मा के प्रथम गुण अग्नि की प्रार्थना से होती है। पहले मण्डल (अध्याय) में नौ श्लोकों वाला पहला सूक्त अग्नि को समर्पित है। हज़ारों साल पहले हमारे ऋषियों ने ब्रह्माण्ड की रचना में अग्नि के महत्व को समझा था। उन्हें यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि, यह अग्नि ही है जिसने सृष्टि की प्रक्रिया शुरू की, परमाणुओं को एक साथ जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की, जो आकाश से प्रकट हुई। अग्नि की शक्ति ने तारकीय धूल, तारे और ग्रह बनाए। उन्होंने महसूस किया कि सृष्टि का पालन और पोषण अग्नि द्वारा होता है। साथ ही, जब अंत आएगा, तो पूरी सृष्टि अग्नि द्वारा भस्म हो जाएगी। इसलिए, ऋग्वेद की शुरुआत अग्नि की प्रार्थना से होती है।
ऋग्वेद के पहले मण्डल के प्रथम सूक्त में अग्नि की विशेषताओं का वर्णन किया गया है। जैसे वह सदा शुभ ही करते हैं। भद्रम शब्द से अर्थ है वे जो सदा मंगल ही करें।
इस सूक्त में दोनों भक्ति और ज्ञान योग का प्रादुर्भाव देखा जा सकता है। किस प्रकार मन केंद्रित होकर ऊर्जा से भर जाता है और किस प्रकार ऋषि भक्ति भाव से भरकर अग्नि को नमन करते हैं।
अग्नि केवल ज्वाला नहीं। वे हमें पवित्र करते हैं। चाहे इनमें कुछ भी अशुद्ध वस्तु डाली जाए ये उसे पवित्र ही करते हैं। इसी शुद्धि से अस्तित्व का आनंद या सोम उठता है जो योग में अत्यंत सहायक है।
अग्नि जातवेदस हैं अर्थात् इन्हें हमारे जन्मों का ज्ञान है। इनका ओज आग ही नहीं आलोक भी है। अर्थात् अग्नि ज्वाला और प्रकाश दोनों हैं। अग्नि कई प्रकार की हैं, जैसे सौर्य अग्नि जो सूर्य का तत्व है, विद्युत अग्नि जो इंद्र या दिव्य मन का अस्त्र है। किंतु अग्नि जल में भी छिपी हुई है और वे अचेतन में भी गुप्त हैं। जैसे जैसे अग्नि शक्तिमान होती है योग व यज्ञ दोनों भी ऊर्जा व प्रभाव से भर जाते हैं।
अग्नि का गृह है  *सत्यम ऋतम बृहत्*
 वहीं उनका सही रूप देखा जाता है। किंतु फिर भी सभी देवों में मनुष्य के सबसे समीप अग्नि ही हैं।
और देव से अर्थ है दिव्य, दीप्तिमान, जो केवल देते हैं और द्यौस में रमण करते हैं। सभी देव एक ही परमात्मा की शक्तियाँ हैं और उन्हीं में उनकी पूर्णता है।
*निरुक्त* — अग्नि शब्द तीन मूल ध्वनियों से आया है। *अ-* बीज ध्वनि जो आरम्भ और अस्तित्व का भाव देती है। *ग्-* मूल से भाव है शक्ति का। अग्- से अर्थ है जो आगे हो, श्रेष्ठ और प्रख्यात, ज्वलंत, शक्तिमान, अप्रतिम। और अग्नि से अर्थ हुआ वह जो महान, उत्तम, बलवान, उद्दीप्त, और नेतृत्व करने के योग्य हो। अग्- मूल से ही आए है और शब्द जैसे आंग्ल भाषा में Agnes, igneous, ignite. निरुक्त के कारण कई शब्द द्वि- या त्रि- अर्थी होते हैं जिससे वेद के बहुस्तरीय व बहुआयामी अर्थ निकलते हैं।
व्याकरण: पहले पाँच मंत्रों का आरम्भ अग्नि की विभिन्न विभक्तियों से हुआ है। इससे स्मृति में भी सरलता होती है। अगले चार मंत्रों में से तीन में फिर अग्नि की विभक्तियाँ देखी जा सकती हैं किंतु मंत्र के आरम्भ में नहीं।
छंद: वेद में छंद अत्यंत विकसित व परिमार्जित है। पहले सूक्त में गायत्री मंत्र का उपयोग किया गया है जिसमें तीन पद होते हैं, प्रत्येक में आठ वर्ण। अनुप्रास, यमक व श्लेष अलंकारों का प्रयोग खुल कर किया गया है किंतु हर बार अलंकार का प्रयोग विशेष कारण से किया जाता है।  
*. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत
देवाँ एह वक्षति ॥२॥*
जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥२॥
*३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवेयशसं वीरवत्तमम् ॥३॥*
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥३॥
*४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥*
हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥४॥
*५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत् ॥५॥*
हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥५॥
*६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसितवेत्तत् सत्यमग्ङिर: ॥६॥*
हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥६॥
७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्नमो भरन्त एमसि॥७॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७॥
८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम्वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८॥
९. : पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भवसचस्वा : स्वस्तये ॥९॥हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥९॥

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.