ईस्ट इंडिया कंपनी की सबसे असफल नीति थी 1769-1770 का बंगाल का अकाल जिसमें लगभग एक तिहाई जनसंख्या (एक करोड़) भूख और बीमारी से मर गयी थी।
कृषि की विफलता और किसी भी सरकार की खराब कृषि नीति ऐसी समस्यायों को जन्म देती हैं। भारत में आज भी कृषि बहुत हद तक एक सफल काम नहीं है जबकि यह देश कृषि प्रधान माना जाता है। आज की लगभग 130 करोड़ जनसंख्या को भोजन प्रदान कराना सिर्फ किसानों और पैदावार के भरोसे ही नहीं हो सकता।
इस दिशा में जब हम इतिहास की ओर झांकते हैं तो 1770 का वह अकाल दिखाई पड़ता है जिसने मानव जीवन को कष्ट में ला दिया था।
1770 के उस अकाल के समय तब के बंगाल (और आज के झारखंड के राजमहल का इलाका) इतना प्रभावित था कि लूटमार, डकैती और हत्याएं हर रोज की चीज हो गई थी।
बंगाल के इस अकाल के बारे में ‘दि एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ की रिपोर्ट में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी ने लिखा कि मानव दुर्भाग्य का जो नजारा देखने को मिला वह मानवता के नाम पर एक कलंक था; भूखे लोग अपने ही लोगों के शवों को खा रहे थे।
उस समय के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को इसकी सूचना दी गई थी किन्तु सरकार ने कुछ नही किया और 1770 से भुखमरी शुरू हो गई।
इस अकाल ने बड़ी संख्या में लुटेरों को पैदा किया । राजशाही का एक सुपरवाइजर जिसका नाम बटन रास था ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कुछ डकैत मालदा से निकलकर राजमहल, दीनापुर तथा पूर्णियां तक लूटमार कर रहे थे।
उसी तरह ड्यूकराल जो उस समय पूर्णिया का सुपरवाइजर था ने लिखा कि कोई भी दिन ऐसा नहीं था जब किसी के घर में डकैती की सूचना नहीं मिलती थी।
सबसे खराब हालत राजमहल के जंगलतारी इलाके का था। जिन जमींदारों ने अपने इलाके में सुरक्षा के लिए चौकियों के  निर्माण कराए थे उन्होंने उसे हटा दिया और सारे चौकीदार भाग गए थे।
तब जंगलों की तरफ से लुटेरों का राज शुरू हो गया। वे समतल भूमि में आते और लूटमार तथा हत्या कर वापस भाग जाते। यहां तक कि डाक ले जाने वाले कर्मचारियों की हत्या भी कर दी जाती। सबसे खतरनाक इलाका टेलियागढी के पास का था जहां शाम ढलने के बाद कोई आदमी नही जाता था।
इस कुव्यवस्था का फायदा जमींदार भी उठा रहे थे जो लुटरों के माध्यम से अपने दुश्मनों से बदला लेते।
तब ऐसे समय में ही 1772 में कैप्टन ब्रूक को जंगलतारी का कमांड दिया गया जिसने लुटेरों को जंगल की ओर धकेल दिया।
फिर जब 1774 में मेजर जेम्स ब्राउन इस इलाके में आया तब उसने फिर से बंद पड़ी चौकियों को स्थापित किया और उसे दारोगा के हवाले कर दिया।
यहीं से आधुनिक राजमहल में दारोगे की भूमिका दिखाई देती है। दारोगे के नीचे सिपाहियों की बहाली की गई और उन पुलिसकर्मियों को थोड़ी सी जागीर देकर पहाड़ी और समतल भूमि के बीच बसा दिया गया। फिर 1780 तक सबकुछ ठीक हो गया।
1769-70 के बंगाल के इस अकाल में मानव जीवन की जो क्षति हुई थी वह यूरोप के 14वीं सदी के ब्लैक डेथ से भी कहीं बड़ी थी। यूरोप के ब्लेक डेथ में लोग प्लेग के फैलने से मरे थे और बंगाल में भुखमरी से।
‌आज के भारत में भी ये सवाल उठते रहते हैं जिसका अर्थ है कि हमारी कृषि व्यवस्था आज भी उतनी मजबूत नहीं हो पाई है कि 130 करोड़ लोगों के लिए भोजन जुटा सके। ऐसा नहीं है कि 1770 के बाद से सूखा और अकाल से हमारा पीछा छूट चुका है।

(फोटो साभार wikiband )

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.