अनुपमा शर्मा:-
श्री शैलम (सैलम) ज्योतिर्लिंग आंध्रप्रदेश के पश्चिमी भाग में कुर्नूल जिले के नल्लमला के जंगलों के मध्य कृष्णा नदी के किनारे श्री सैलम नामक पहाड़ पर मल्लिकार्जुन के रूप में विराजमान हैं । यहाँ भगवान शिव की आराधना मल्लिकार्जुन के रूप में की जाती है। इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं ।
मंदिर का स्थापत्य दक्षिण भारत के अन्य मंदिरों की तरह द्रविड़ शैली में हैं । यहाँ की मूर्तिकला बड़ी चमत्कारिक है मंदर के प्रवेश द्वार बहुत बड़ा राजगोपुरम बना हुआ है।
मंदिर अति प्राचीन है । अनेक धर्मग्रंथों में इसकी महिमा का वर्णन है । स्कंद पुराण में भी श्री सैलम नाम से पूरा एक अध्याय है । जिसमें इस मन्दिर का वर्णन है । अन्य हिन्दू पुराणों व महाभारत में भी इस मंदिर का सन्दर्भ आता है । महाभारत के अनुसार इस मंदिर में भगवान शिव का पूजन करने मात्र से ही अश्वमेध यज्ञ का करने का फल प्राप्त होता है व इसके शिखर के दर्शन करने मात्र से ही दर्शकों को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है व अनंत सुखों की प्राप्ति होती है और जीव आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है ।
मंदिर का गर्भगृह बहुत छोटा है जिसकी वजह से प्रांगण में लंबी पंक्ति लगती है । एक समय में अधिक लोग नहीं जा सकते हैं इसलिये दर्शन के लिये लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। मल्लिकार्जुन मन्दिर के पीछे पार्वती माता का मंदिर है इन्हें ही मल्लिका देवी कहते हैं ।
सभा मण्डप में नंदी की विशाल मूर्ति है।
तमिल सन्तों ने भी यहाँ बहुत सी स्तुतियाँ गायीं हैं। आदि शंकराचार्य जी ने जब इस मंदिर की यात्रा की तो उन्होंने शिवनंद लहरी की रचना की।
पुराणों के अनुसार इस ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव की बहुत ही रोचक कहानी है। भगवान शिव व माता पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश जी विवाह के लिये झगड़ा करने लगे । कार्तिकेय का कथन था कि वह बड़े हैं इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए किन्तु गणेश जी अपना विवाह पहले करना चाहते थे इसलिए दोनों में झगड़ा बड़ गया और अपने इस झगड़े का फैसला कराने के लिये दोनों अपने माता -पिता के पास पहुँचे । दोनों की बात सुनकर माता पार्वती व पिता महेश्वर ने कहा कि तुम दोनों में से जो भी पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आयेगा उसी का विवाह पहले होगा । शर्त सुनते ही कार्तिकेय अपना वाहन मयूर लेकर पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिये निकल पड़े । लेकिन स्थूलकाय गणेश जी व उनका वाहन चूहा इतनी शीघ्रता से पृथ्वी की परिक्रमा कैसे कर सकते थे इसलिए वह बड़े संकट में फँस गए। शरीर से स्थूल व बुद्धि के भंडार एकदंताय ने कुछ विचार करने के बाद अपने माता-पिता को एक आसान पर बैठाया और उनकी सात प्रदक्षिणा कीं और विधिवत पूजन किया—-
*पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः ।*
*तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम् ।।*
इस प्रकार माता-पिता की पूजा करके गणेश जी पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल के अधिकारी बन गये । उनकी चतुराई से माता -पिता दोनों ही अति प्रसन्न हुए और उनका विवाह विश्वरूप प्रजापति की कन्याओं सिद्धि व ऋद्धि से करा दिया । सिद्धि से क्षेम तथा ऋद्धि से लाभ नामक दो पुत्र भी प्राप्त हुए। उधर यह सारा वृत्तांत नारद जी ने कार्तिकेय को जाकर सुना दिया। गणेश विवाह व उन्हें पुत्र लाभ के समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय बहुत नाराज हुए । और
माता पिता के चरण स्पर्श करके उनसे दूर चले गए ।
अलग होकर कार्तिकेय स्वामी क्रौंच पर्वत पर रहने लगे । भगवान शिव व माता पार्वती ने कार्तिकेय को मनाने के लिए देवऋषि नारद जी को क्रौंच पर्वत भेजा लेकिन कार्तिकेय पर उनकी किसी बात का कोई असर नहीं हुआ । पुत्र विछोह में व्याकुल माता शिव जी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुँच गयीं उधर माता पिता के आगमन की खबर सुनकर कार्तिकेय वहाँ से तीन योजन दूर(छत्तीस किलोमीटर) दूर चले गये। कार्तिकेय के चले जाने के बाद भगवान शिव उस क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गये और ‘मल्लिकार्जुन’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। मल्लिका माता पार्वती का नाम है और अर्जुन भगवान शिव को कहा गया है। सम्मलित रूप से उक्त ज्योतिर्लिंग को मल्लिकार्जुन के नाम से जगत में प्रसिद्ध हुआ।
एक और अन्य कथा के अनुसार चन्द्रगुप्त राजा की राजधानी क्रौंच पर्वत के निकट थी। उनकी राजपुत्री किसी संकट में फँस गयी थी। अपने संकट से घबराकर वह राजमहल से भाग गयी और क्रौंच पर्वत की शरण में पहुँच गयी। वह कन्या वहाँ रहकर ग्वालों के साथ दूध पीती व कन्दमूल खाती। इस तरह वह कन्या उस पर्वत पर रहने लगी उस कन्या के पास एक श्यामा गाय थी जिसकी वह सेवा करती थी । उस गौ के साथ कुछ विचित्र घटना होने लगी उसका दूध कोई व्यक्ति छुपकर निकालने लगा। एक दिन उस राजकन्या ने एक व्यक्ति को उस श्यामा गाय का दूध दुहते देख लिया। वह क्रोध के मारे उस व्यक्ति को मारने के लिये दौड़ी । और जब निकट पहुँची तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि नज़दीक आने पर उसने देखा कि गाय शिवलिंग के ऊपर खड़ी है । उसने उसी शिवलिंग के ऊपर एक भव्य मंदिर निर्माण करा दिया।
यह मंदिर अतिप्राचीन है । पुरातत्वविदों के अनुसार यह मन्दिर दो – तीन हज़ार वर्ष पुराना है। यहाँ बड़े – बड़े राजाओं व महाराजाओं ने समय समय पर आकर दर्शन लाभ लिया है।
मुख्य मंदिर के समीप पीपल और पाखर का सम्मलित वृक्ष है जिसके चारों ओर चबूतरा बना हुआ है।
अन्य दर्शनीय स्थलों में पातालगंगा, भ्रमराम्बा देवी,शिखरेश्वर व हाटकेश्वर मन्दिर, विल्वन व एकम्मा देवी मंदिर है। एकम्मा देवी मंदिर घोरजंगल में होने की वजह से बिना सुरक्षा के यात्रा सम्भव नहीं है ।
घना जंगल व जंगल में हिंसक पशु होने के कारण पैदल यात्रा सम्भव नहीं । यहाँ जाने के लिये मोटर मार्ग है। पैदल यात्रा केवल शिवरात्रि पर ही सम्भव है ।
ज्योतिर्लिंग का इतिहास सातवाहन राजवंश के शिलालेखों में भी मिलता है । यह मंदिर दूसरी शताब्दी से ही अस्तित्व में है । इस मंदिर का उल्लेख विजयनगर के राजा हरिहर प्रथम के काल में भी मिलता है । पाँच सौ वर्ष पूर्व विजय नगर के राजा कृष्णदेव राय यहाँ आये थे । उन्होंने एक भव्य मण्डल का निर्माण कराया जिसका शिखर सोने का बना हुआ है । उनके पश्चात महाराज शिवाजी भी क्रौंच पर्वत पर दर्शन के लिए पहुँचे उन्होंने मंदिर से थोड़ी दूर यात्रियों के लिये धर्मशाला का निर्माण भी करवाया । इस पर्वत पर बहुत से शिवलिंग हैं।
*श्री शैलश्रृंगे विवधी प्रसंगे, शेषाद्रि श्रंगेपि सदावसंततम् ।*
*तमर्जुनं मल्लिकार्जुनं पूर्वमेकम, नमामि संसारसमुद्रसेतुम् ।।*
मुक्ति (मोक्ष) की चाह रखने वालों के लिए यह स्थान सर्वोत्तम है । इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से ही लोगों का कल्याण व समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं व सब बधाओं से मुक्त हो व्यक्ति अनंत सुखों की प्राप्ति करता है ।
जीव को आवागमन से मुक्ति देता यह ज्योतिर्लिंग अतिभव्य व चमत्कारी है।