अनुपमा शर्मा:

महाकालेश्वर मंदिर भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से तृतीय हैं । मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर प्राचीन नाम अवंतिका नगरी  में स्थित है । महाभारत ,पुराणों व महाकवि कालिदास ने  इस मंदिर का अपनी रचनाओं में  मनोहर वर्णन किया है व सूतजी महाराज जी ने शिवपुराण में कोटिरुद्रसंहिता के सोलहवें अध्याय में इस तृतीय ज्योतिर्लिंग का वर्णन किया है।  स्वयंभू, भव्य और दक्षिणामुखी होने के कारण इस ज्योतिर्लिंग का अत्यंत पुण्यप्रद महत्व है । इसके दर्शन मात्र से ही मनुष्य मोक्ष गामी हो जाता है । मेघदूत में महाकवि कालिदास ने अवन्तिकापुरी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की बहुत प्रशंसा की है व भावनात्मक रूप से समृद्ध किया है ।
उज्जैन भारतीय समय की गणना के लिये  केंद्रीय बिंदु रहा है  और महाकाल  इस नगर पीठासीन देव हैं । समय के देवता कालों के काल महाकाल शिव अपने समस्त वैभव के साथ  उज्जयिनी में शाश्वत शासन करते हैं । महाकाल लिंगम  स्वयं से उत्पन्न हुआ  स्वयं की आंतरिक शक्ति को प्राप्त करने के लिये जाना जाता है । महाकालेश्वर की मूर्ति दक्षिणा मुखी होने के कारण दक्षिणा मूर्ति मानी जाती है ।  यह  अनूठी विशेषता तांत्रिक परम्परा द्वारा बारह ज्योतिर्लिंगों में से केवल महाकालेश्वर में ही मिलती है ।  प्रतिवर्ष व सिंहस्थ पर्व के पूर्व इस मंदिर को सुसज्जित किया जाता है ।
मन्दिर की स्थापना द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के पालक पिता नंद जी की आठवीं पीढ़ी पूर्व हुई थी। ईसवी पूर्व छठी शताब्दी के धर्मग्रंथों में उज्जैन के महाकाल मन्दिर का वर्णन मिलता है । उज्जैन के राजा प्रद्योत के काल से लेकर ईसवी पूर्व दूसरी शताब्दी तक महाकाल के अवशेष प्राप्त होते हैं । मंदिर एक परिकोटे के भीतर स्थिति है । गर्भगृह तक पहुँचने के लिये एक सीढ़ीदार रास्ता है । इसके ठीक ऊपर दूसरा कक्ष है जिसमें कालों के काल महाकाल ज्योतिर्लिंग रूप में विराजमान हैं।
मंदिर का क्षेत्रफल १०.७७×१०.७७ वर्गमीटर और ऊँचाई २८.७१ मीटर है । गर्भगृह के पश्चिम ,उत्तर व पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के चित्र स्थापित हैं । दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है । तीसरी मंजिल पर नागचंद्रेश्वर की मूर्ति है जो नागपंचमी को ही दर्शन  के लिये खुलती है । महाशिवरात्रि एवम्  श्रावण मास में  हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है । मन्दिर से ही लगा एक छोटा सा जल स्रोत है जिसे कोटितीर्थ कहा जाता है । इल्तुतमिश ने जब इस नगरी पर आक्रमण किया तब उसने इस ज्योतिर्लिंग को इसी कोटितीर्थ में फिंकवा दिया था बाद में इनकी पुनः  प्रतिष्ठा करायी गयी । सन १९६८ के सिंहस्थ महापर्व के पूर्व इसके मुख्य द्वार को विस्तार कर सुस्सजित कर लिया गया था । इसके साथ ही निकासी के लिये  एक अन्य द्वार का भी निर्माण कर लिया गया था। लेकिन दर्शनार्थियों की अपार भीड़ को समझते हुए बिड़ला उद्योग समूह ने १९८० के सिंहस्थ पर्व के पूर्व एक विशाल सभा मण्डप का निर्माण कराया।
इसके ११८शिखरों पर १६ किलो सोने की परत चढ़ी हैं ।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अवन्तिका नगरी में एक वेद प्रिय नाम के ज्ञानी ब्राह्मण रहते थे ।  वह बहुत बुद्धिमान ,  कर्मकाण्डी  व भगवान शिव के भक्त थे। वह हर रोज पार्थिव शिवलिंग बनाकर व अपने घर में ही अग्नि की स्थापना करके अग्नि पूजन कर शास्त्रोक्त विधि से  उनकी आराधना किया करते थे । उनके चार पुत्र थे  देवप्रिय, प्रियमेध, संस्कृत और सुव्रत ये चारों तेजस्वी और माता-पिता के आज्ञाकारी थे  । रत्नमाल  पर्वत पर दूषण नाम का एक राक्षस  रहता था । इस राक्षस को ब्रह्मा जी से  अजेय होने का वरदान मिला जिसके मद में आकर वह धार्मिक व्यक्तियों पर अत्याचार करने लगा । और उसने उज्जैन के ब्राह्मणों को भी अपनी हरकतों से परेशान करना शुरू कर दिया  । वह ब्राह्मणों से हवन, यज्ञ व धार्मिक कार्यों को करने से मना करने लगा । ब्राह्मणों ने  उसकी बात को अनसुना कर दिया तो दूषण ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया ।जिससे चारों तरफ हाहाकार मच गया । लेकिन वेदप्रिय के पुत्रों ने फिर भी भगवान की आराधना नहीं छोड़ी ।  दूषण ने देखा कि उसके अत्यचार का असर इन  चारों ब्राह्मण सुकुमारों पर नहीं पड़ रहा है तो उसने अपनी सेना को उन्हें बाँध कर मारने का आदेश दे दिया  लेकिन वह  भगवान शिव की आराधना में लीन रहे व प्राण रक्षा के लिये भगवान शिव की आराधना शरू कर दी । इन ब्राह्मण सुकुमारों की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दूषण को चेतावनी दी कि वह ब्राह्मणों को यूँ ही परेशान ना करे लेकिन वह फिर भी नहीं माना  और उसने उन ब्राह्मणों पर हमला कर दिया । अपने सेवकों की दयनीय स्थिति देखकर  भगवान शिव धरती फाड़कर दूषण का काल बनकर प्रकट हुए  और जब वह वहाँ प्रकट हुए तो एक गड्ढा बन गया और नाराज़ महेश्वर ने उस दूषण राक्षस को अपनी हुंकार से ही भस्म कर दिया । उनको अपने सामने साक्षात पाकर भक्तों ने उनसे वहीं रुकने की प्रार्थना की  उनकी प्रार्थना से अभिभूत होकर वह उस गड्ढे के एक – एक कोस की भूमि में ज्योतिर्लिंग रूप में विराजमान हो गये   व वह स्थान लिंगरूपी भगवान की स्थली बन गया । इसी वजह से इस जगह का नाम महाकालेश्वर पड़ा ।
इस मंदिर पर ११०७ से लेकर १७२८ ईसवी तक यवनों का शासन था । यवन काल में  अवंती की लगभग ४५०० सौ वर्षों में स्थापित हिंदुओं की प्राचीन धार्मिक परम्परायें नष्ट हो चुकी थीं । कई मुस्लिम शासकों ने आक्रमण किया जिनमें मुगल भी शामिल हैं । लेकिन १६९०ईसवी में मराठों ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और २९ नवम्बर १७२८ को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौट आया और 1१७३१ से १८०९ तक यह नगरी मालवा की राजधानी रही। मराठों के शासन काल में यहाँ दो महत्वपूर्ण काम हुए पहला महाकालेश्वर मंदिर का पुननिर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व पर स्नान की स्थापना जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार करवाया।
इस मंदिर के अलावा यहाँ अन्य धार्मिक एवम ऐतिहासिक स्थान भी हैं जिनमें गोपाल मंदिर, चौबीस खम्बा देवी मंदिर, चौसठ योगिनियां मन्दिर, नगर कोट की रानी मन्दिर, हरसिद्धि माता, गढ़ की कालका, सांदीपनि मुनि आश्रम,काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिद्धवट, गजलक्ष्मी मन्दिर, वृहस्पति मन्दिर, चिन्तामणि गणेश, चौरासी महादेव मंदिर, नवग्रह मन्दिर, भूखी माता मंदिर, भतृहरि गुफा, मछन्दर नाथ समाधि, कालिया देह पैलेस,कोठी महल, घण्टाघर, जंतर-मंतर महल आदि।
यहाँ आकर लोग कई प्रकार की साधनायें करते हैं। कुण्डली दोष के लिये भी लोग यहाँ पूजा अर्चना करते हैं। तथा अल्प जीवन जीने वाला व्यक्ति अगर यहाँ आकर ईश्वर की आराधना व महामृत्युंजय का जप करता है तो वह देवों के भी देव प्रसन्न होकर उसे पूर्ण जीवन दान देते हैं।
  कालों के काल महाकाल मोक्षदायी भी हैं उनके दर्शन मात्र से ही साधक  मोक्षगामी हो जाता है।
*अवन्तिकायां विहितावतरम् मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम*
*अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहं सुरेशम् ।।*

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.