(दिल्ली के पत्रकार ब्रजमोहन की समीक्षा)

डॉक्टर ब्रजेश वर्मा का नया उपन्यास सरकार बाबू दरअसल मुफस्सिल, कस्बाई पत्रकारों की अंतहीन यात्रा है, जिसकी शायद कभी शुरुआत हुई ही नहीं। छोटे शहरों और कस्बों का ये पत्रकार सिर्फ थोड़ा सा नाम कमाने के लिए अपनी पूरी जिंदगी किसी अखबार या टीवी संस्थान को होम कर देता है और बदले में इन संस्थानों से उसे इतना भी नहीं मिलता कि वो अपनी रोज की जरूरतों को भी ठीक से पूरा कर सके। घर-परिवार या समाज के दायित्वों को सम्मान के साथ निभा सके। दरअसल पूरी जिंदगी ईमानदारी से अपना फर्ज निभाने वाले इन पत्रकारों का न्यूज संस्थान दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल करते हैं। जब तक जरूरत रही, इनका भरपूर दोहन किया और फिर बांझ गाय की तरह लात मार कर बाहर निकाल दिया।
डॉक्टर ब्रजेश वर्मा का उपन्यास ‘सरकार बाबू’ झारखंड और पूर्वी बिहार के ऐसे ही पत्रकारों की अनकही कहानी है, जिनसे मालिक, संपादक काम तो खूब खोजता है, हर दिन खोजता है, दिन-रात खोजता है, लेकिन उनके काम का दाम देना उसे मंजूर नहीं। लेकिन हौसला देखिए, गर्दिश में भी इनके होश और जोश को कोई चुनौती देने की हिमाकत नहीं कर सकता।
उपन्यास में एक जगह सरकार बाबू कहते हैं ‘परिस्थितियां चाहे जैसी भी हो, काम को तो समय पर पूरा करना है। अखबार के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है, खबरों को समय पर भेजना। डेड लाइन को अगर कोई पत्रकार समझ नहीं पाता, तो फिर वो कभी अच्छा पत्रकार नहीं हो सकता’। सरकार बाबू को देश की, समाज की, अपने संस्थान, सबकी चिंता है, लेकिन क्या देश और संस्थान को भी उनकी उतनी ही चिंता है? उपन्यास में कई जगह ये सवाल आपको सुलगते हुए मिल जाएंगे।
उपन्यास में सरकार बाबू का चरित्र ऐसे पत्रकारों का प्रतिनिधित्व करता है, जो एक खबर की खोज में सैकड़ों किलोमीटर दूर इस लिए निकल जाता है, ताकि घटना की सच्चाई में कोई चूक न रह जाए। उस पर जानलेवा हमले होते हैं, लेकिन उसे अपनी जान की परवाह नहीं। उसे गुंडों, माफियाओं से डर नहीं लगता। वो जानता है कि मुश्किल की घड़ी में उसका दफ्तर उसके साथ खड़ा नहीं होगा, फिर भी वो प्रशासन के तेवर की चिंता नहीं करता। उसे नेताओं, मंत्रियों की परवाह नहीं। वो तो बेबस, मजबूर और गरीब लोगों की आवाज बनना चाहता है। अपनी कलम की ताकत से उनकी आवाज को तूफान बना कर प्रशासन और सत्ता के गलियारे की हर उस बंद खिड़की और दरवाजे को खटखटाना चाहता है, जो इनके हक के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं।
कई बार खुद को जोखिम में डाल कर सरकार बाबू धमाकेदार खबरों का आगाज करते हैं।
‘सरकार बाबू रेलवे लाइन पर रखे पत्थरों पर गिरे और संभलना चाह ही रहे थे कि डीएमयू के अंदर से अपराधियों ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दी’।
जगह और उनका साहस देखिए…..।
‘सरकार बाबू ने अपनी गाड़ी को जहां तक जा सकती थी, ले जाने का फैसला किया….जब पहाड़ों को पार किया, तो वहां का नजारा डरावना था। एक खुला खुला मैदान था, जहां सात पुलिसकर्मी वर्दी में शहीद हो चुके थे’। पूरी किताब में ऐसी कई घटनाओं का जिक्र है, जो पाठकों को रोमांचित करेंगी।
पीड़ितों को इंसाफ और हक दिलाना ही सरकार बाबू की जिंदगी का असली मकसद था और कमाई भी। दफ्तर से ज्यादा मिलने की उम्मीद नहीं थी, इसलिए सरकार बाबू सीमित संधासनों में जीना जानते थे। उनकी जिंदगी का मकसद पैसा कमाना नहीं, बल्कि स्वभिमान के साथ सिर उठा कर चलना है और इसी लिए रोजाना जो लोग उनके ईर्द-गिर्द हैं या यूं कहिए कि जो उनकी मित्र मंडली है वो कुछ स्थानीय पत्रकार, चायवाला और अखबार वाला तक ही सीमित है। चाय, सिगरेट, गुटखा और माछ-भात से ज्यादा आगे की दुनिया नहीं है उनकी। कथानक में सरकार बाबू की अपने दोस्तों के साथ बॉउंडिंग, बड़े शहरों के खोखले रिश्तों को भी समझने का मौका देती है।
लंबे समय तक ईमानदारी से अपने अखबार के लिए काम करने वाले सरकार बाबू भी दफ्तर में अंदरुनी राजनिति का शिकार होते हैं और एक दिन अखबार उन्हें बिना वजह बताए नौकरी से निकाल भी देता है। ये किताब संपादक जैसे वरिष्ठ पद पर बैठे उन सीनियर पत्रकारों की मानसिकता पर भी चोट है, जो खुद को चौथे खंभे का प्रहरी बताते हैं, लेकिन अपने ही संस्थानों में मुफस्सिल पत्रकारों से बिना वेतन बंधुआ मंजदूरों की तरह काम लेते हैं।
उपन्यास का ज्यादातर हिस्सा झारखंड और संताल परगना से जुड़ा है। डॉक्टर ब्रजेश वर्मा इतिहास के गहरे जानकार हैं, इस लिए पाठकों को उनकी लेखनी के जरिए इन इलाकों और आदिम जनजाति की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संरचना से भी रू-ब-रू होने का मौका मिल जाता है। लेखक का दावा है कि इस उपन्यास की कहानी सच्ची घटनाओं पर आधारित है, तो ये जानने के लिए उन सभी लोगों को ये उपन्यास जरूर पढ़नी चाहिए, जो पत्रकारों की ईमानदारी और उनके जज्बे को सलाम करते हैं। अच्छे कथानक के बावजूद जगह-जगह प्रिंटिंग की गलतियां खलती हैं। ये किताब दिल्ली के नाम्या प्रेस का प्रकाशित है और इसकी कीमत 299/- रूपये मात्र है।

Spread the love

By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.