
भारत का शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जो 1983 के उस गौरवशाली इतिहास को जानना नहीं चाहेगा, जब कप्तान कपिलदेव के नेतृत्व में भारत एकदिवसीय क्रिकेट का विश्वविजेता बना था।
इस खेल के साथ अन्य पुराने लोगों की तरह हमारी बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं। व्यक्तिगत रूप से हम 1971 से ही रेडियो पर क्रिकेट की कॉमेंट्री सुनते आ रहे थे।
शुरुआती जीत के बाद मन में जो उत्साह थे, वह जिम्बाब्वे के खिलाफ भारत के 17 रन पर 5 विकेट के गिर जाने के बाद इस तरह से टूटे थे कि हम सब कॉमेंट्री सुनना छोड़ सिनेमा देखने चले गए थे और जब लौटकर वापस आए तो पता चला कि कपिलदेव ने 175 रन बना कर भारत को जीत दिला दी।
इसके बाद तो फिर एक भी मैच को छोड़ना पाप ही था हम सबके लिए। भागलपुर के हमारे मुहल्ले में जॉन नाम का एक लड़का था जो केरल का रहने वाला था। जब भारत का फाइनल मैच वेस्ट इंडीज से जो रहा था तो उसने वेस्ट इंडीज के हर एक विकेट के गिरने के बाद अपनी पेंट फाड़नी शुरू की और भारत की जीत के आने तक उसकी पेंट इतनी फट चुकी थी कि वह तकरीबन नंगा होकर घर लौट। यह जुनून था हमलोगों का क्रिकेट के प्रति।
आज गुड़गांव के एक मॉल में पहली बार हमें 83 फ़िल्म देखने का अवसर मिला। किसी भी मॉल में देखी गई हमारी यह पहली फ़िल्म थी।
हमने रणवीर सिंह को इससे पहले किसी भी फ़िल्म में नही देखा था। दरअसल हम 1970 के बाद की बनी कोई भी फ़िल्म अब नहीं देखते, इसलिए आजके जमाने के नायक या नायिकाओं में से बहुतों को नही जानते।
जबकि हमने 8000 से अधिक फिल्में देखी हैं और हमारी जिंदगी की हर शाम 1968 से 1990 तक सिनेमा हाल में ही गुजरी। खूब फिल्में देखी, सहगल से राजेश खन्ना तक के लगभग सभी अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की फिल्में खोज खोज कर देखी, जब जी उकता गया तो अंग्रेजी, अरबी, बंगला, फ्रेंच, रसियन और दक्षिण भारत की फिल्में देख ली। किन्तु 1970 के बाद की बनी हिंदी फिल्में अब नहीं देखता।
क्या कारण था जो आज अपनी पत्नी, बहू और बेटे के साथ क्रिकेट पर बनी फिल्म 83 देखने चला गया? इससे पहले बड़े पर्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच “स्पीन Vrs पेस” एक फ़िल्म बनी थी उसे भी देखा था। किंतु हमलोगों का पहला विश्वकप जीतना कितना गौरव का क्षण था यह हमें आज पता चला तब जबकि हम गुडगांव के एक मॉल में सिनेमा देखते हुए खुशी से रोते रहे।
कपिलदेव और गावस्कर को किसी भी रूप में देखना सुख देता है। जब वेस्ट इंडीज के खूंखार गेंदबाज मार्शल, ग्रीनीच, गार्नर, माइकल होल्डिंग्स की गेंदवाजी देखता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या आज के हमारे महान क्रिकेटर उन्हें झेल पाते?
मार्शल की एक गेंद जो वेंगसरकर की कनपट्टी पर लगी तो बगल में बैठी अपनी पत्नी से हमने कहा कि यदि आज का तेंदुलकर ऐसी गेंदों को बिना हेलमेट फेस करता तो वह पिच पर कम से कम दस बार मारा जाता!
जो व्यक्ति पहला कर्म करता है दरअसल वही महान होता है, जैसे कि 1983 की यह अपनी विश्वविजेता टीम। आज के खिलाड़ी गावस्कर को आउट कर पाते? याद रखिए पहले विश्वकप में गावस्कर ने ओपनिंग की और नाबाद रहे।
और, कपिलदेव की शालीनता ही उनकी ताकत थी, जिसे रणवीर सिंह ने बेजोड़ तरीके से निभाया है। रणवीर सिंह का अभिनय शानदार है। बाकी के कलाकारों ने उसी तरह से अभिनय किया है, जिसतरह से भारतीय टीम ने मेहनत कर 1983 के विश्वकप को जीता था।
फ़िल्म में दो जबरदस्त खामियां हैं:- एक यह कि गावस्कर की भूमिका को काफी गौण कर दिया गया है और दूसरा कि हिंदी सिनेमा में अक्सर जो होता है– फिल्मों में मां, बहन, मंगेतर, पति पत्नी सम्बन्ध आदि को हर जगह घुसेड़ देना। यह बकबास है।
फ़िल्म 83 में जितने भी पारिवारिक पात्र हैं सब बकबास हैं। उनकी कोई जरूरत नहीं थी। इससे बेहतर होता कि कुछ वेस्ट इंडीज, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और जिम्बाब्बे के खिलाड़ियों के बारे में भी बताया जाता। इसलिए, हमारी समझ से यह फ़िल्म मुकम्मल नही है और यही कारण है कि इस फ़िल्म जिसपर हम ऑस्कर जीत सकते थे उसे मा, मंगेतर और हिन्दू मुस्लिम फसाद तथा प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को बीच में लाकर बर्बाद कर दी गई।
सबसे अच्छा रोल संजय मिश्रा ने एक मैनेजर के रूप में किया है, जो यह साबित करता है भारत के क्रिकेट खिलाड़ी तब कितने मोहताज हुआ करते थे।