ब्रजेश वर्मा

18 अक्टूबर 1922 को जब ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी)  की स्थापना हुई तो रेडियो का आविष्कार उसके महज 26 साल पहले ही हुआ था।
प्रथम विश्वयुद्ध के समय तो नहीं, किंतु दूसरे विश्वयुद्ध के समय रेडियो का हर बड़े खेमें ने जोरशोर से इस्तेमाल किया, चाहे वह मित्र राष्ट्र हो या धुरी राष्ट्र। मित्र राष्ट्र, अर्थात इंग्लैंड, अमेरिका और रूस तथा धुरी राष्ट्र, अर्थात जर्मनी, इटली और जापान।
बीबीसी मालामाल था, पैसे से नहीं बल्कि अपनी एक अलग पहचान के लिए।
हाल ही में हम बीबीसी पर हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का एक इंटरव्यू देख रहे थे। यह इंटरव्यू तब का था, जब भारत आजाद हो गया और पंडितजी  इंग्लैंड के दौरे पर थे। मौका मिले तो आपलोग भी कभी गौर से देखिए कि किस प्रकार बीबीसी के तीन पत्रकार नेहरू जी को बैठाकर सवालों की झड़ी लगा रहे थे, और नेहरूजी एक शालीन व्यक्ति की तरह झेंपकर उनके हर सवालों के जवाब दे रहे थे।
हमें ऐसा लगा कि बीबीसी एक आजाद मुल्क, जो हाल ही में उसी के देश ब्रिटेन से आजाद हुआ था, के प्रधानमंत्री, जो दुनियाभर में एक स्टेटस्टेन के रूप में जाने जाते थे, पर किस प्रकार डोमिनेंट होने की कोशिश कर रहा था।
यह हिम्मत बीबीसी का कोई भी पत्रकार चर्चिल से कभी भी करने की कोशिश नही कर सकता था, कि सारा समय वह अपने मुंह में एक मोटा सा सिगार क्यों ठूंसे रहता था या फिर उसका पेट इतना मोटा था कि सुबह की चाय के लिए उसे बिस्तर पर एक ऐसी टेबुल दे दी जाती थी, जो ठीक उसके पेट में फिट बैठे और वह पालथी मारकर सिगार पीते हुए फारिग होने के लिए चाय पीए तथा दूसरे विश्वयुद्ध की खबरें पढ़े।
आप कल्पना कीजिए कि 1922 में भारत की क्या स्थिति थी। महात्मा गांधी ने 1919 में खिलाफत आंदोलन को अपना पूरा समर्थन इसलिए दिया कि तुर्की के खलीफा को अंग्रेजों ने हटा दिया था, और भारत के मुसलमान जो तुर्की के खलीफा को अपना खलीफा मानते थे, ब्रिटेन के खिलाफ सड़क पर उतर आए। गांधी जी ने भारतीय मुसलमानों के नेताओं को इतना जोरदार समर्थन दिया कि मुहम्मद अली जिन्ना एकांतवास में चले गए। हालत यह थी कि जिन्ना के मुस्लिम लीग के पास तब सिर्फ छह ही नेता बचे थे।
आज वही तुर्की भयानक भूकंप से पीड़ित है और भारत सरकार उसकी मदद में सबसे पहले उतरी तो बहुत सारे बीबीसी समर्थकों को  यह सहायता गले नही उतर रही। आखिरकार तुर्की से भारत का क्या नाता रहा है? एक खिलाफत आंदोलन को छोड़कर और वह भी तब खत्म हो गया जब मुस्तफा कमाल पाशा ने खुद अपने तुर्की में खलीफा के पद को खत्म कर दिया। कमलपाशा ने तो तुर्की में शुक्रवार की जगह, रविवार को सार्वजनिक छुट्टी घोषित कर दी थी।
फिर क्या हुआ। भारत में हिन्दू और मुसलमान के बीच रिश्ते बिगड़ते चले गए। अंग्रेजों ने उन्हीं मुसलमानों को खूब भड़काया, जो खिलाफत के समय गांधी जी से समर्थन ले रहे थे। जिन्ना फिर से जीवित हो उठा और देश में इतने दंगे हुए कि बीबीसी भी शरमा जाए गोरे लोगों के काले कारनामे से।
जब भारत आजाद हुआ तो उस समय हमारी शिक्षा दर मात्र 18 प्रतिशत थी। फिर भी लोग बीबीसी के कायल इसलिए थे कि उन्हें लगता था कि जिसकी आलोचना वे नही कर पाते उसे बीबीसी के पत्रकार कर देते हैं। तो, बीबीसी की जुबान सिर्फ भारत की आलोचना करने वाली ही बन गई।
इंसान का एक स्वाभाविक स्वभाव होता है, खासकर कमजोर लोगों का। यदि वह किसी कारणवश किसी की आलोचना नही कर पाता, तो वह किसी अन्य व्यक्ति  के मुंह से उसकी आलोचना को सुनना इस कदर पसंद करता है, मानो वह सत्यनारायण कथा सुन रहा हो।
हमारे जैसा एक अदना इंसान भी यदि अंग्रेजों के भारत में दंगा करवाने के करतूत को गिनाने लगे तो, बीबीसी शर्म से डूब मरेगा। जब हम फ्रीडम एट मिडनाइट किताब को पढ़ते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि न सिर्फ अंग्रेज बल्कि हमारे भारत में कैसे कैसे लोग थे जिनके काले कारनामों से हमारे पूर्वजों की जिंदगी मलीन हो गई थी। टेबुल पर बैठकर किसी देश को आजादी देने के फैसले करने के बाद, दो सौ वर्षों तक राज करने वाले अंग्रेजों को जो तकलीफ हुई होगी, वही तकलीफ आज बीबीसी को हो रही है कि उनकी नजरों में संपेरे और गंवारों के देश में वंदे भारत जैसी ट्रेन कैसे बन रही, बड़ी बड़ी मोबाइल कंपनियां यहां क्यों आ रही, हजारों किलोमीटर की एक्सप्रेस वे क्यों बन रहा, सारे रेलवे बिजली पर क्यों चल रही, रेलवे से थर्ड क्लास डब्बा क्यों हटा दिया गया, भारत एक बार में 110 सेटलेट्स कैसे आसमान में ले गया, तेजस जैसा लड़ाकू जहाज क्यों बना, दुनिया भर में आईटी कंपनी को भारत अपने युवाओं को क्यों देता है, नासा में भारतीय क्यों, सरकार 80 करोड़ जनता को मुफ्त में राशन कैसे देती है, अमेरिका में उपराष्ट्रपति भारतीय मूल का कैसे बन गया और यहां तक कि खुद बीबीसी के देश में भारतीय मूल का प्रधान मंत्री कैसे हो गया।
ये बातें बीबीसी के लिए शर्म से डूबकर मर जाने जैसी होनी चाहिए। मित्र, (बीबीसी) हमलोग राष्ट्रमंडल के सदस्य है। आपके किंग की आलोचना का षड्यंत्र कभी भी इसलिए नही करते क्योंकि हम पदों की इज्जत करते हैं।
आपने क्या किया? एक डॉक्यूमेंट्री बनाई, उसे भारत के सबसे दुश्मन देश पाकिस्तान मूल के एक ब्रिटिश सांसद को दिया, उस सांसद ने आपके ही पार्लियामेंट में हमारे खिलाफ आवाज उठा दी, कुछ लोग खुश हुए कि हमारी तरक्की को रोकने का सबसे बड़ा औजार आपने हमारे दुश्मनों को दे दिया, किंतु आप एक बात भूल गए कि आपके उसी पार्लियामेंट में आपके जो प्रधानमंत्री बैठा हैं, भारतीय मूल का है।
यह खेल बंद कीजिए महोदय। यदि हमलोग अंग्रेजों के कराए गए दंगों की जानकारी आपको देने लगेंगे तो आपको मुंह छुपाने की जगह नही मिलेगी। भारत में 700 वर्षों से मुसलमानों का राज रहा, एक भी देंगे नही हुए। आपका 200 साल राज रहा, दो हजार से अधिक दंगे हुए। भारत के हिंदू और मुसलमान हमेशा मिलजुलकर रहना चाहते हैं, ये गोरी चमड़ी वाले लोग थे जिन्होंने दोनों को दंगा कराना सिखाया।
आप इस गलतफहमी में हैं मिस्टर बीबीसी कि भारत में अभी भी ईस्ट इंडिया कंपनी का राज है।

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.

One thought on “अब ईस्ट इंडिया कंपनी का राज नहीं बीबीसी”
  1. बहुत अच्छा विश्लेषण, बधाई! हालांकि जिस मुगलकाल में तलवार के बल पर सामूहिक धर्मान्तरण हुए, हिंदू औरतों को जबरन उठा लेने की घटनाएँ आम थीं, मंदिर नष्ट कियेगए, उसे क्लीनचिट देना ठीक नहीं।

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