कंचन:- एक कहानी

नींद के खुलते ही रमा गहरी मुस्कान से सुबह का स्वागत करती है। फिर वह ताजी हवा की खोज में निकल पड़ती है। सुबह की स्वच्छ हवा से उसका रोम – रोम पुलकित हो रहा है। रमा सोचने लगती है, “हमारे आस पास इतनी सुंदरता बिखरी पड़ी है कि हम उसे देख मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। ये नजारे ही हमें खुश रखने के लिए काफी है।”
पार्क में लोग आनंद उठा रहे हैं उन ताजी हवाओं का जिसे प्रकृति ने उन्हें मुफ्त में दिया है। वह खुश होकर घर वापस आती है। वह कुछ देर आराम करना चाह ही रही है कि तभी दरवाजे पर कोई दस्तक देता है। सामने रूपा खड़ी है। उसकी पड़ोसन।
रमा प्यार से रूपा का स्वागत करती है। रूपा, जो चिंतित मुद्रा में थी, रमा के स्नेहसिक्त व्यवहार देख रो पड़ती है। रमा समझ जाती है कि रूपा को अभी अपनेपन की जरूरत है। वह उसका सर सहलाने लगती है। जब रूपा का मन शांत हो जाता है तब वह कहना शुरू करती है, “मेरी बेटी रेखा जो कल सुबह कालेज गई, अभी तक घर वापस लौटकर नहीं आई है।”
रूपा बिलखते हुए कागज का एक टुकड़ा रमा के हाथों में देती है। रमा पढ़ती है। उस पत्र में रेखा ने अपनी मां को लिखा है कि वह अपने सहपाठी रोहन के साथ विवाह करने जा रही है, यदि मां पापा आशीर्वाद देने आए तो वह अपना अहोभाग्य समझेगी।
रेखा और रोहन की प्रेम कहानी कुछ लोग जानते थे। उन लोगों ने रूपा को इस बारे में समझाया था कि वह अपनी बेटी को समझाए, अन्यथा कुछ ऊंच नीच हो गई तो बहुत मुश्किल होगी। किंतु एक रमा थी जिसने रेखा और रोहन की दोस्ती को एक सामान्य नजर से देखा करती थी। वह रूपा के सामने ही उसकी बेटी की प्रशंसा किया करती थी। रमा जानती थी कि रेखा और रोहन एक जाति के नहीं हैं और रोहन के माता पिता शायद इसे स्वीकार न करे। फिर भी उसे यकीन था कि दुनिया में आए बदलाव की वजह से सब ठीक हो जायेगा।
रमा कुछ सोचती है। फिर वह रूपा को समझाती है कि उसे अपनी बेटी की खुशी के लिए उसका साथ देना चाहिए। रूपा चुपचाप रमा की बातें सुनते रहती है। वह हिम्मत नही जुटा पा रही है। वह उठती है और कमरे से बाहर निकल जाती है।
रूपा के चले जाने के बाद रमा सोचने लगती है। आज के समाज के बारे में उसकी धारणा सही है या गलत, वह समझ नहीं पा रही। कुछ लोग तो प्रेम विवाह का खुलकर समर्थन करते हैं, और कुछ ऐसे भी हैं जो क्रोध में आकर अपनी बच्ची की हत्या भी कर डालते हैं। यहां पर आकर कुछ को आत्महत्या का रास्ता भी अख्तियार करना पड़ता है।
यह सोचकर रमा उदास हो जाती है। उसे भय भी लगने लगता है कि यदि उनके बच्चों के साथ कभी ऐसी बात हुई तो क्या होगा? वे तो अभी स्कूल में हैं। इसका मन अशांत हो जाता है। वह अपने कमरे में ही चहलकदमी करने लगती है। वह थोड़ी देर सोचती है और फिर घर से बाहर निकल जाती है
वह रूपा के घर पहुंचती है। उसके घर का दरवाजा यूं ही खुला पड़ा है। रमा अंदर जाती है। देखती है कि रूपा और उसका पति अलग अलग कमरे में चादरों से अपने मुंह को ढके लेटे हुए हैं। रमा के कमरे में आते ही रूपा हड़बड़ा कर उठ जाती है। शायद उसे भ्रम होता है कि उसकी बेटी रेखा आ गई। किंतु वह सामने खड़ी रमा को देखती है।
तभी मोबाइल की घंटी बज उठती है। रूपा देखती है, उसकी बेटी रेखा ने फोन किया है। रेखा बताती है कि उसने एक मंदिर में रोहन से शादी कर ली और अब वह पास के शहर के किसी धर्मशाला में रुकी हुई है।
रूपा को चिंता होती है कि क्या पता उन दोनों के पास पैसे हैं भी या नहीं। वह अपनी बेटी से मिलने का फैसला करती है। रमा सोचने लगती है क्यों नही वह भी रूपा के साथ जाकर रेखा का सहयोग करे। उसका पति एक सुलझा हुआ इंसान है। दूसरों की जिंदगी में दखलंदाजी नहीं करता। फिर भी वह अपने पति को बिना बताए रूपा के साथ उसकी बेटी से मिलने चली जाती है। वह नवविवाहित जोड़े को धैर्य रखने का सलाह देते हुए कहती है कि इस मामले में वह खुद रोहन के माता पिता से मिलकर उन्हें रेखा को स्वीकार करने को राजी कर लेगी।
रमा मानवीय जीवन को अनमोल मानती है। वह एक खुशमिजाज स्त्री है। वह चाहती है कि हर इंसान अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से जीए, जिसमें उसका कर्तव्य और प्रेम साथ साथ चले। वह रोहन के माता पिता से मिलने के लिए तैयार हो रही है कि उसके दरवाजे पर एकबार फिर से दस्तक पड़ती है। देखती है, सामने रूपा खड़ी है।
जब रमा बताती है कि आज वह रोहन के माता पिता से मिलने जा रही है, तो रूपा अपनी आंखों में आंसू लिए उसका हाथ चूम लेती है। वह रमा की हिम्मत की दाद देते हुए उसके साथ चलना चाहती है। वह रमा की कायल हो जाती है कि उसने उसकी बेटी की जिंदगी संवारने के लिए एक बड़ा जोखिम उठा लिया है।
रोहन के माता पिता काफी नाराज है। उन्हें यकीन ही नही हो रहा कि उसका पुत्र अपनी मर्जी से किसी अन्य जाति की लडकी से शादी कर चुका है। वह गुस्से से लाल हैं। जैसे ही उनका सामना रमा और रूपा से होता है वह और भी गुस्सा करने लगते हैं। रमा उसे बार बार समझने की कोशिश करती है। वह अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में सैकड़ों तर्क देती है। अब धीरे धीरे रोहन के घर का माहौल शांत होने लगता है।
फिर रोहन का पिता खुद अपने पुत्र से मिलने का फैसला करता है। वे अभी उसी धर्मशाला में पहुंचते हैं जहां रेखा और रोहन ठहरे हुए हैं। दोपहर का वक्त है। रोहन कुछ काम से निकलने ही वाला है कि वह सामने अपने पिता को खड़ा देखता है। एक क्षण दोनों की नजरें मिलती हैं। रोहन के पिता अभी भी क्रोध में हैं। फिर वह गौर से रोहन के पीछे उदास खड़ी रेखा को देखते हैं। रेखा उनसे अपनी आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं करती। माहौल शांत है, ऐसी शांति कि हवाएं भी रुकी हुई हों।
रोहन के पिता का दिल अब तेजी से धड़कने लगता है। कोई कुछ नहीं बोलता। यह फैसले की घड़ी है। दिल और दिमाग के बीच घनघोर संघर्ष चल रहा है। रोहन के पिता अपने दिल की बात सुनते हैं। वह आगे बढ़कर रोहन को गले से लगा लेते हैं। रेखा फफक कर रो उठती है। वह रोहन के पिता के पैरों पर गिरना ही चाहती है कि वह उसे उठाते हुए कहते हैं, ” घर चलो बेटी, मां तुम्हारा स्वागत करना चाहती है।”
रमा कुछ नही बोलती। वह धीरे से अपने घर की तरफ मुड़ जाती है। वह सोचती है, “वक्त का पहिया सदा घूमता रहता है, उसे रोकना भी एक गुनाह है।”

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.