कंचन:-


बाबूजी गुजर गए। वह 93 साल के थे। इस दुनिया से विदा लेने से पहले इन्हें बूढ़ा, कमजोर और बीमार देखना दुखद था।
बाबूजी की यादें हमारे मन मस्तिष्क में हमेशा जीवित रहेंगी। मैने उन्हें एक विद्वान इंसान के रूप में देखा। उनका जितना ज्ञान इतिहास और राजनीति में था, उतना ही हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के जानकार थे। भाषा के प्रति उनके लगाव की वजह से मैंने हमेशा उन्हें लिखते और पढ़ते हुए देखा। उनकी लेखनी इतनी साफ सुथरी थी कि किसी कागज पर उनके द्वारा लिखे गए शब्द ऐसे प्रतीत होते मानो किसी ने टाईप कर दिया हो।
हम तीन बहनें और दो भाई हैं। बाबूजी हमेश लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा और उनका नौकरी करना पसंद करते। यही कारण था कि हम बहनों ने उच्च शिक्षा ग्रहण की और नौकरी में आए। उन दिनों नौकरियों का दायरा बहुत ही कम था। इसलिए बाबूजी ने हमलोगों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान दिया।
बाबूजी चूंकि प्रशासनिक सेवा में थे, तो उनका घर पर रहना बहुत कम हुआ करता। किंतु जब भी मौका मिलता वे हमलोग को पढ़ाया करते। उन्होंने अपने जीवन को सादा जीवन उच्च विचारों में ढाल लिया था। समय के जबरदस्त पावंद थे। उनकी इस आदत की वजह से उनके अधीनस्थ कर्मचारियों को बहुत परेशानी हुआ करती।
बाबूजी जीवनभर शुद्ध शाकाहारी रहे, यहां तक कि घर में लहसून प्याज भी वर्जित था। वह मिठाई के बहुत शौकीन थे। भोजन प्रेमी ऐसे कि जबतक घर में डायनिंग टेबल नही आया, वह जमीन पर बैठकर खाना खाते। रात के नौ बजे तक सो जाया करते और सुबह एकदम चार बजे उठकर गाया करते, “उठ जाग मुसाफिर भोर भयो, अब रैन कहां जो सोवत है।” हमलोगों को भी सुबह ही उठाकर पढ़ने के लिए बिठा देते।
धर्म के प्रति उनका विचार अलग था। एक प्रकार से बाबूजी धार्मिक विचारों के नहीं थे। साम्यवादी साहित्य के अलावा अंग्रेजी के साहित्यकारों में शेक्सपियर से लेकर अनेक कवियों, साहित्यकारों जैसे, रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, टॉलस्टाय, दस्तोवास्की, गोर्की, तुर्गनेव, निराला, मैथिलीशरण गुप्त और जवाहरलाल नेहरू आदि की किताबें उन्हें कंठस्थ थी। इन लेखकों की अच्छी पंक्तियों को वे अपनी डायरी में लिखते और मां को सुनाया करते। किंतु वे सबसे अधिक तुलसीदास को पसंद करते। वे कहा करते थे कि मैं तुलसीदास जी को इसलिए नही पसंद करता कि उन्होंने रामायण जैसी महाकाव्य की रचना की, बल्कि मैं उन्हें इसलिए पसंद करता हूं कि उनकी लेखनी के भाव इंसानों के मन में अमिट छाप छोड़ते हैं। जीवन के मध्य में उन्होंने राधा स्वामी मत को अपना लिया था।
अवकाश प्राप्त करने के बाद बाबूजी ने रांची के प्रभात खबर में संपादकीय पृष्ठ कर लेख लिखना शुरू किया। उसके लेख कानून और भारतीय न्याय प्रणाली से जुड़ी रहती। अखबार के संपादक को जब कभी भी कानूनी विचारधारा से जुड़े लेख चाहिए होता, वे बाबूजी को ही आग्रह किया करते। बाद में उनके लेखों के संकलन की किताब भी प्रकाशित हुई।
बाबूजी हिंदी सिनेमा के दीवाने थे। और राजकपूर उनका सबसे प्रिय कलाकार थे। उस जमाने में जब सिनेमा हाल का बोलबाला था, बाबूजी हमलोगों को फिल्में दिखाने ले जाया करते, जिनमें अधिकांश फिल्में राजकपूर और नरगिस की होती।
उन्हें कोई बीमारी नही थी। हर रोज सुबह, चाहे मौसम कैसा भी क्यों न हो, दही और चूड़ा खाते। मीठा के जबरदस्त शौकीन थे। किंतु उम्र किसी को बक्श नहीं देती। 93 साल की उम्र में उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। पिछली जनवरी में मैं उनके पास लगभग दो महीने रही। उनकी सेवा की। अब वह बोल नही पाते। चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहते। पहचानते भी कम थे। पिछले 30 मार्च को मैं अपने पति के साथ ट्रेन से भागलपुर से दुमका जा रही थी, तभी उनके निधन की खबर मिली। दुमका पहुंचकर उसी रात मैने बस से रांची का सफर किया। सुबह पहुंची, तब तक उनका अंतिम संस्कार हो चुका था।
भगवान उनकी आत्मा को शांति दे! “ॐ शांति!”