ब्रजेश वर्मा:-
सन 1926 में जबकि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन भारत में थोड़ी  ठहर सी गई थी, जापान के नागासाकी शहर में एशियन यूथ कांफ्रेंस का आयोजन किया गया।
बिहार में भागलपुर के आनंद मोहन सहाय (1898-1991) को रास बिहारी बोस (1886-1945) ने सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। आनंद मोहन उन दिनों जापान में थे। इसी सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि एशियाई देशों में भारतीय युवाओं को तैयार किया जाए।
रास बिहारी बोस ने आनंद मोहन सहाय से कहा कि चूंकि पासपोर्ट सिर्फ तुम्हारे पास है, तो एशियाई देशों में भारतीय क्रांतिकारियों को तैयार करने की जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं। साथ ही तुम्हें जासूसी भी करनी होगी।
फिर आनंद मोहन सहाय ने एक सौदागर का वेष धारण किया और गुप्त रूप से फिलीपींस और सिंगापुर चले गए।उनकी कंपनी का नाम इंटरनेशनल ट्रेडर्स था, जो एक कागजी कंपनी थी और सहाय उसके मालिक। नवंबर 1926 में वे हांगकांग और फिर साइगन होते हुए बैंकाक पहुंचे। उन्होंने भारतीय युवाओं को संगठित किया और फिर कोलंबो होते हुए मद्रास पहुंचे, जहां से उन्होंने अगस्त 1927 में गुप्त रूप से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस (1997-1945?) से मुलाकात की। नेताजी के साथ यह उनकी दूसरी मुलाकात थी।
इससे पहले 1922 में कांग्रेस के गया अधिवेशन में आनंद मोहन सहाय की पहली मुलाकात नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से हुई थी, और फिर अगले साल डॉ. राजेंद्र प्रसाद (1884-1963) तथा जवाहरलाल नेहरू (1889-1964) की सलाह पर वे मेडिकल की पढ़ाई करने जापान चले गए। उनके लिए पासपोर्ट का इंतजाम सच्चिदानंद सिन्हा (1871-1950) ने कराया था।
उस समय आनंद मोहन सहाय की जेब में मात्र 75 रुपए थे, और पानी के जहाज के एक खलासी की मदद से 30 रुपए खर्च कर उन्होंने डेक पर का टिकट लिया था। जापान जाकर वे ट्यूशन करने लगे। वे अंग्रेजी पढ़ाया करते थे।
लेकिन जापान जाकर पढ़ाई से अधिक उनकी गतिविधियां क्रांतिकारी रास बिहारी बोस के साथ जुड़कर काम करने में शुरू हो गई थी। जापान में चल रही क्रांतिकारी गतिविधियों की सूचना नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को आनंद मोहन सहाय जहाज पर तैनात एक रसोइए के माध्यम से भेजते थे। जब कभी भी वह जहाज जापान से कलकत्ता पहुंचता, वह रसोइया सुभाष बोस से मिलकर जापान में चल रहे क्रांतिकारी बदलाव की खबरे देता। वह रसोइया भी भागलपुर के नाथनगर इलाके का रहने वाला था।
इसीलिए जब दूसरी बार 1927 में आनंद मोहन सहाय ने कलकत्ता जाकर नेताजी से मुलाकात की तब नेताजी ने उन्हें सलाह दी कि वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जापानियों से मदद लें।
दरअसल सुभाष चंद्र बोस समझ गए थे कि आगे चलकर उन्हें क्या करना है। अगले महीने सितंबर में आनंद मोहन सहाय जब सिंगापुर होते हुए जापान को निकले तब सुभाष चंद्र बोस में उन्हें बराबर संपर्क में रहने को कहा।
घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ रही थीं। 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया। अमेरिका बहुत समय तक इस युद्ध से दूर रहा, किंतु 7 दिसंबर 1941 को जापानियों ने जैसे ही पर्ल हार्बर स्थित अमेरिकी नौ सेना अड्डे पर हवाई हमला किया, युद्ध में मित्र राष्ट्र की ओर से अमेरिका भी शामिल हो गया।
इस समय तक सुभाष चन्द्र बोस भी भारत से निकलकर जर्मनी में थे। 15 जून 1942 को बैंकाक में भारतीयों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें बर्मा, सिंगापुर, मलाया और चीन के भारतीय प्रतिनिधि आए थे। बैंकाक के इसी सम्मेलन में आनंद मोहन सहाय ने खुले मंच से कहा, “हमलोगों को इस आंदोलन को चलाने के लिए रास बिहारी बोस नहीं, बल्कि सुभाष चन्द्र बोस की जरूरत है।
उनकी इस मांग के साथ थी नेताजी सुभाष बोस ने अपने एक गुप्तचर को आनंद मोहन के पास भेजा। उसी गुप्तचर ने, जो कि एक जापानी था, आनंद मोहन को जानकारी दी कि जापान सुभाष चंद्र बोस को अपने यहां बुलाने के लिए तैयार नहीं था।
इसके बाद बैंकाक में इंडियन नेशनल आर्मी के एक सम्मेलन में आनंद मोहन ने खुलकर कहा कि अब सुभाष बोस को जापान बुलाया जाए। उस समय इंडियन नेशनल आर्मी की कमान रास बिहारी बोस के हाथों था। जापान सुभाष की जगह रासबिहारी को पसंद करता था।
इस समय जनरल मोहन सिंह (1909-1989)ने दक्षिण पूर्व एशिया में चालीस हजार फौज जमा कर ली थी। आरंभ में मोहन सिंह ब्रिटिश सेना के 14वें पंजाब रेजीमेंट में था। किंतु जापानी इंपीरियल आर्मी का एक मेजर, जिसका नाम लवाची फुजिवारा (1909-1986) था, ने मोहन सिंह को अपने प्रभाव में ले लिया। जनरल मोहन सिंह ने अपने चालीस हजार फौज को मेजर फुजिवार के अधीन कर दिया। यही चालीस हजार की फौज बाद में इंडियन नेशनल आर्मी बनी, जिसका नेतृत्व रास बिहारी बोस के हाथों था।
किंतु आनंद मोहन सहाय लगातार नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को जापान लाने की वकालत करते रहे। अंत में जून 1943 में सुभाष चन्द्र बोस जर्मनी से जापान आए और जब इंडियन नेशनल आर्मी को उनके हवाले कर दिया गया तो यही सेना आजाद हिन्द फौज बनी। आनंद मोहन सहाय युद्ध के अंत तक आजाद हिन्द फौज के बड़े ओहदे पर रहे। वह सुभाष बोस के इतने करीबी थे कि सम्पूर्ण फौज के लिए रशद के इंतजाम करने की जिम्मेदार नेताजी ने आनंद मोहन सहाय को दी थी। आनंद मोहन सहाय की  सुभाष चन्द्र बोस से अंतिम मुलाकात 6 अगस्त 1945  को बैंकाक में ठीक उसी दिन हुई थी, जिस दिन अमेरिका ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया था।
दुर्भाग्य से वह नही हो पाया जो आजाद हिन्द फौज चाहती थी अन्यथा भारत का इतिहास कुछ अलग तरीके से लिखा जाता और संभावना थी कि भारत का बंटवारा भी नहीं होता!
(यह लेख 80 के दशक में आनंद मोहन सहाय द्वारा लेखक को दिए गए अपने हस्ताक्षरयुक्त साक्षात्कार पर आधारित है। आजादी के बाद आनंद मोहन सहाय कई देशों में भारत के राजदूत रहे। उन्होंने लेखक को बिहार के भागलपुर स्थित पुरानी सराय, नाथनगर, के अपने घर में यह साक्षात्कार दिया था।)

Spread the love

By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.