

अनुपमा शर्मा:–
बिहार हस्तशिल्प जिसे आप स्मृति चिह्न के रूप में खरीद सकते हैं।
बिहार एक सुंदर राज्य है जहाँ विभिन्न प्रकार की हस्तशिल्प कला का निर्माण होता है जिन्हें कोई भी स्मृति चिह्न के रूप में ले जा सकता है। पेंटिंग , हस्तनिर्मित घास से लेकर टेराकोटा पेपर मेशी तक – प्रचुर मात्रा में हस्तनिर्मित वस्तुएं हैं। इनमें से प्रत्येक बिहार हस्तशिल्प का प्रतिनिधित्व करता है।
ये हस्तशिल्प वस्तुएं घर ले जाने के लिए एक बिहार की धरोहर स्मारिका हैं।
*मधुबनी पेंटिंग*
ये बिहार की सबसे प्रसिद्ध हस्तशिल्प कला है, जो कि हाथ से बनायी जाती है। अगर आप दिल्ली हाट गए हैं तो वहाँ इस लोक कला का एक नमूना आप देख सकते हैं। बिहार के मिथिला क्षेत्र की मधुबनी पेंटिंग की बारीकियों को समझने व देखने के लिए एक बार बिहार की यात्रा अवश्य करें ।
*मंजूषा कला*
एक अप्रशिक्षित व्यक्ति के लिए, मंजूषा और मधुबनी में कोई अंतर नहीं । वह इस अंतर को नहीं जान सकता। हालाँकि, यह इस कला का रूप है जो राज्य के पूर्वी भाग या भागलपुर क्षेत्र से आता है। इसमें दर्शायी गयीं कहानियाँ बिहुला विषधारी पर आधारित हैं, जो एक महिला थी जिसने सफल होने के लिए सभी बाधाओं को पार कर लिया था।
लाल, हरा और पीला केवल तीन रंग हैं जिनका उपयोग मंजूषा कला में किया जाता है। बॉर्डर और उनके डिज़ाइन इन पेंटिंग्स का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। मनसा देवी और नागाओं की कई कहानियाँ मंजूषा में चित्रित देख सकते हैं।
*टिकुली कला*
टिकुली बिंदी का दूसरा नाम है जो गर्व से भारतीय महिलाओं के माथे की शोभा बढ़ाती है। 19 वीं सदी के पटना में , टिकुलिस कांच से बनाया जाता था जो सोने की पन्नी से ढका होता था, और फिर एक तेज पेंसिल से उस पर पुष्प पैटर्न या देवताओं की छवियों जैसे विभिन्न डिजाइन उकेरे जाते थे। हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं कि ये टिकुलियाँ कितनी सुंदर और शाही रही होंगी
आधुनिक संस्करण लकड़ी या प्लाईवुड के गोलाकार टुकड़ों और इनेमल पेंट पर बनाए जाते हैं। वे आकार में टिकुलिस से भी बहुत बड़े होते हैं जो माथे तक जा सकते हैं। बहरहाल, कला का स्वरूप संरक्षित है। काली पृष्ठभूमि पर सोना से एक लोकप्रिय संयोजन बना हुआ है।
*सुजनी कला*
परंपरागत रूप से, बच्चे की माँ या घर की महिलाओं ने सुजनी पर जो कढ़ाई की थी, वह नए बच्चे के लिए उनके सपनों और आशाओं का प्रतिनिधित्व करती थी।
प्रदेश में शिल्प को बढ़ावा देने वाले उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान के निदेशक अशोक कुमार सिन्हा ने गांव कनेक्शन को बताया, “वास्तव में सुजनी को मिथिला पेंटिंग की चचेरी बहन माना जाता है।” उन्होंने बताया कि यह पश्चिम बंगाल के कांथा के काम से भी मिलता जुलता है। कांथा भी पुराने कपड़े से बच्चों की रजाई बनाने से निकली है।
यह कला उन कपड़ों से आती है जो माताएं अपने नवजात बच्चों के लिए अपनी पुरानी साड़ियों से बनाती थीं। वे पुरानी साड़ी को मजबूत बनाने के लिए उसकी कुछ परतों को एक साथ सिल देते थे और फिर बचे हुए कपड़े से कपड़े पर रूपांकन बनाते थे। जो लोग प्रतिभाशाली हैं वे टुकड़ों को एक साथ जोड़कर कहानियां बना सकते हैं।
पहली नजर में यह एप्लिक वर्क जैसा लगता है । हो सकता है कि दोनों दूर के चचेरे भाई हों। आज व्यावसायिक में जुड़ने के कारण सुजनी कला ताजे कपड़ों पर की जाती है। रूपांकन सरल ज्यामितीय पैटर्न से लेकर पुष्प पैटर्न और रामायण जैसे महाकाव्यों के दृश्य तक हो सकते हैं।
सुजनी मुख्य रूप से बिहार के दानापुर, भोजपुर और मुजफ्फरपुर क्षेत्रों में प्रचलित है।
*कागज़ की लुगदी कला (पेपरमेशी)*
पेपर मेशी की कलाकृतियाँ पानी में भिगोए गए कागज व मिट्टी से बनाई जाती हैं। इस पेस्ट में सौंफ़ के बीज, गोंद और मुल्तानी मिट्टी मिलाकर एक ऐसा आटा तैयार किया जाता है जिसे किसी भी आकार में ढाला जा सकता है।
बिहार के त्योहारों को पेपर मेशी के द्वारा दर्शाया गया है
पेपर मेशी से विभिन्न उपयोगी वस्तुएँ जैसे टोकरियाँ, बक्से, प्लेटें या खिलौने बनाए जाते हैं।
*पेपर मेशी बिहार हस्तशिल्प*
बिहार संग्रहालय में आप पेपर मेशी से बनी इस खूबसूरत मातृका आकृति को देख सकते हैं। कई गाँवों में पूजा के लिए उपयोग की जाने वाली आदमकद आकृतियाँ देखने में अद्भुत होती हैं। यह बहुत सारे अवयवों के साथ हाथ से बनाया गया है,
*वेणु शिल्प या बांस शिल्प *
वेणु बाँस का संस्कृत नाम है। याद रखें श्रीकृष्ण को वेणुगोपाल भी कहा जाता है। बिहार में प्राचीन काल से ही बाँस का उपयोग भोजन और पानी के भंडारण के लिए किया जाता रहा है। बौद्ध काल में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पंखे और जूते जैसी चीजें बनाने के लिए बाँस का उपयोग करने का उल्लेख मिलता है। बाँस से मूर्तियाँ बनाने का उल्लेख भी मिलता है।
*वेणु या बाँस से बना मंदिर*
आज भी कुछ वस्तुएँ जैसे सूप, डिब्बे ,डलिया, टोकरी नआदि बाँस से बनाये जाते हैं। आपको कुशल कारीगरों द्वारा बनाये गए बाँस के उत्कृष्ट शिल्प जैसे जहाजों के मॉडल या पूर्ण मंदिर को अवश्य देखना चाहिए।
*बावन बूटी*
यह बिहार की स्वदेशी बुनाई है जो नालन्दा के निकट बसवान बिगहा गाँव में प्रचलित है । कहा जाता है कि ये बुनकर साड़ियों, चादरों या पर्दों पर 52 तरह की भावनाएं बुन सकते हैं। स्थानीय वास्तुकला को रूपांकनों के माध्यम से बुना हुआ भी देखा जा सकता है।
*सिक्की कला*
सिक्की या कुशा एक स्थानीय घास है जो बिहार में उगती है। इसमें एक सुंदर सुनहरा रंग है। घास को साफ किया जाता है और फिर धूप में सुखाया जाता है। सूखने के बाद इसे गर्म पानी में कुछ देर तक उबाला जाता है और फिर इसे गुलाबी, नीला, हरा और पीला जैसे अलग-अलग रंग दिए जाते हैं। फिर सुई की मदद से इस घास को अलग-अलग आकार दिया जाता है. लोकप्रिय आकृतियाँ खिलौने, टोकरियाँ, बक्से, चटाइयाँ और सजावटी वस्तुएँ इत्यादि हैं।
ये जैविक उत्पाद लंबे समय तक चलते हैं और इन पर कीड़ों या कवक का प्रभाव नहीं पड़ता है। ओडिशा के जाजपुर में भी ऐसी ही सुनहरी घास वाली शिल्पकला देखी जा सकती है ।
टेराकोटा
पूरे भारत में यह सदियों पुरानी परम्परा है जिसका पालन आज भी किया जाता है। तो भला बिहार कैसे पीछे रह सकता है? आप कारीगरों को मिट्टी, पत्थर और लकड़ी पर अपना जादू चलाते हुए देख सकते हैं।
यह एक प्राचीन कलाकृति है जिसे मैंने नालंदा संग्रहालय में देखा जा सकता है इसे आज भी कारीगरों द्वारा दोबारा बनाया जा रहा है।
बिहार में पत्थर कला कई युगों से देखी जा सकती है। दीदारगंज यक्षी उनमें से सबसे प्रसिद्ध है।
*उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान केन्द्र( पटना)*
उपेन्द्र महारथी द्वारा शुरू की गई यह संस्था बिहार की कला और शिल्प को पुनर्जीवित करने पर काम कर रही है। वे उन्हें वर्तमान परिदृश्यों के अनुरूप इस कला को ढाल रहे हैं, डिजाइन और उत्पाद को नूतनता के साथ जोड़ रहे हैं। आप इस केंद्र का दौरा कर सकते हैं और सभी कलाकारों को अपनी कला में व्यस्त होते हुए देख सकते हैं।
यह संस्थान उन छात्रों के लिए पाठ्यक्रम भी चलाता है, जो ज्यादातर नि:शुल्क हैं, जो इन पारंपरिक बिहार हस्तशिल्प को सीखना चाहते हैं। यह अपनी परंपराओं को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का एक अच्छा तरीका है।


