

ब्रजेश वर्मा:-
यह झारखंड का एकमात्र “बुलंद मीनार” है।
इसे बनाया गया था राजमहल की अति प्राचीन पहाड़ी श्रृंखला पर। इस बुलंद मीनार की नींव किसने रखी, इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं है। मुश्किल से दो सौ साल पहले तक यहां गंगा नदी बहा करती थी। किंतु नदी अब मीलों दूर जा चुकी है।
आधुनिक इतिहासकारों ने इसे तेलियागढ़ी का नाम दिया, को अपने तैल रंगों की वजह से जाना गया है। इस किले की सामने की एक मात्र दीवार बची हुई है, बाकी समय के साथ और इस इलाके में हो रहे नाजायज पत्थर खदानों के व्यापार की वजह से ध्वस्त हो गई है।
सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने, जिन्हें भारत में आधुनिक पुरातत्व का जनक माना जाता है, ही एकमात्र लेखक हुए जिन्होंने इस किले को बुलंद मीनार कहा।
कनिंघम 19वीं सदी के मध्य में यहां आए थे। किंतु उनसे सदियों पहले व्हेनसांग ने इस किले की यात्रा की। व्हेनसांग ने अपनी यात्रा वृतांत में इस किले को बौद्ध मठ के रूप में दर्शाया है। इसका मतलब है कि यह किला बंगाल के राजा शशांक से पहले अवस्थित था।
मध्यकाल से आधुनिक समय के जानकारों में जिन्होंने जिन्होंने भी इसे देखा या फिर इसके बारे में जानकारी रखी, उन्होंने अपनी रचनाओं में इस बुलंद मीनार का जिक्र किया। बाबर की बेटी बेगम गुलबदन की पुस्तक हुमायुनामा हो या विलियम होजेस की ट्रैवल इन इंडिया, सभी ने इस किले के बारे में लिखा।
इन सभी लेखकों में जो एक कॉमन बात है वह यह कि सभी ने इसे “बंगाल का प्रवेश द्वार” कहा। पूरब की ओर से बंगाल में प्रवेश करने के लिए किसी भी सेना को इस किले को जीतना पड़ता था, अन्यथा वे आगे नही बढ़ पाते।
तेलियागढी के किले को पार करना इतना कठिन था कि 1743 में मराठों के पेशवा बालाजी राव अपने बंगाल अभियान के दौरान पचास हजार घुड़सवार सेना के साथ यहां आकर रुक गए। वह इतनी बड़ी सेना के साथ इस किले को पार नहीं पर सकते थे, अतः उन्होंने एक दूसरा रास्ता चुना। वे कहलगांव से आगे बढ़कर जब सकरीगली पहुंचे तो उस तंग रास्ते से अलग हटकर राजमहल की पहाड़ियों को पार करते हुए बंगाल चले गए।
जब 1539 ई में हुमायूं ने बंगाल पर आक्रमण किया तो शेरशाह के पुत्र जलाल खां ने हुमायूं की सेना को इस किले के बाहर एक महीने तक अटका के रखा था।
अबुल फ़ज़ल की आईने अकबरी से लेकर सैयद गुलाम हसन की पुस्तक सियार उल मुत्खरीन में भी तेलियागढ़ी के इस किले का जिक्र है।
यहां आने वाले विद्वानों की एक लंबी लिस्ट है। इब्स ने 1757 में इसकी यात्रा की थी। इसके अलावा विलियम होजेस, फ्रांसिस बुकानन, बलोच और विशप हेबर ने भी यहां की यात्रा कर अपनी रचनाओं में इसका जिक्र किया। फिर भी इसके निर्माण की तिथि को आजतक कोई नही बता पाया है। यह संभवतः भारत का एकमात्र ऐसा दुर्ग है, जो बुलंद मीनार के नाम से इतिहास में दर्ज तो है, किंतु इसके जन्म की कोई सटीक जानकारी नहीं है।
बहुत साल पहले 1940 में जब यहां खुदाई हुई तो इसके पश्चिमी दीवार पर एक खंभा मिला था, जिसकी पूजा स्थानीय लोग किया करते थे। यह एक प्राचीन संरचना थी, जिसे स्थानीय लोग योगी गढ़ के नाम से बुलाते थे। सर कनिंघम ने दावा किया है कि इस बुलंद मीनार को पाल वंश के किसी राजा ने बनवाया होगा, किंतु गुर्जर राजा भोज प्रथम, जिन्हें मिहिर भोज भी कहा जाता है और जिनकी सीमाएं कन्नौज से दिल्ली होते हुए बिहार के गया, हजारीबाग और तेलियागढ़ी तक फैली हुई थी, 1940 की खुदाई में उसके कुछ निशान भी यहां मिले थे। किंतु आश्चर्य है कि बाद में इसकी खुदाई को रोक दिया गया था।
जब व्हेनसांग इस इलाके में आया था तब बंगाल में पाल वंश की स्थापना नही हुई थी। पाल राजाओं ने 750 ई में अपने वंश की स्थापना की जो 1162 में मदन पास की मृत्यु तक चला। फिर जब व्हेनसांग इस किले की बातें करता है, तो इसका मतलब यह हुआ कि इसे पाल राजाओं से भी पहले बनवाया गया था।
भारत में सल्तनत काल के दौरान बंगाल की राजधानी गौड़ हुआ करती थी, जिसे बाद में मुगल काल के दौरान अकबर के सेनापति मानसिंह ने राजमहल कर दिया। मानसिंह बंगाल का गवर्नर था। वह वाहिद सेनापति था जिसने सम्पूर्ण रूप से इस किले को जीता था।
एक पुर्तगाली यात्री जोजो बैपटिस्ट लवन्हा वह पहला यूरोपियन था, जिसने 17वीं सदी के आरंभ में तेलियागढ़ी किले का चित्र बनाया था। यह चित्र डी. बार्सेस की किताब में प्रकाशित हुई थी। उस किताब का नाम एशिया था। फिर लैंडस्केप चित्रकार विलियम होजेस, जो पहला अंग्रेज चित्रकार भारत आया था, उसने 1781 में इस किले की यात्रा की, जहां पर उसका स्वागत भागलपुर के कलक्टर अगस्टस क्लीवलैंड ने किया था। उसने भी इस किले का चित्र बनाया।
किंतु झारखंड का एकमात्र बुलंद मीनार आज इसलिए पूर्ण रूप से ध्वस्त होने की कगार पर है, क्योंकि ठीक इस किले के पास की पहाड़ियों को सरकार में पत्थर खदान के मालिकों को पत्थर व्यवसाय के लिए बेच दिया है।
झारखंड का यह एकमात्र बुलंद मीनार बेचिरागी हो चुका है, जिसका कोई रखबाला नही। यह अलग बात है कि भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे एक अनमोल संरचना घोषित किया है। लेकिन सरकार ने इसे सुरक्षा देने की बजाय पत्थर माफिया के हवाले कर दिया है। यह किला साहेबगाज रेलवे स्टेशन से पूर्व कुछ ही मील की दूरी पर है।
(विशेष जानकारी के लिए मेरी पुस्तक “बंद गली- राजमहल” का अध्ययन कर सकते हैं)
