ब्रजेश वर्मा:
दुमका: भारतीय जनता पार्टी परिवार में राजनीति के दो बड़े खिलाड़ी, केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा को झारखंड में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी की जीत को सुनिश्चित करने की जो जिम्मेदारी दी गई है उससे प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने जरूर से राहत की सांसें ली होंगी।
हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में झारखंड ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था, तब जबकि सत्ता पक्ष के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जमीन घोटाले के आरोपों में जेल में बंद हैं, और झारखंड की सत्ता चंपई सोरेन के हाथों में है, जिन्हें भाजपा ने कमजोर समझने की भूल कर दी थी।
भाजपा की इस सोच का परिणाम यह हुआ कि वह झारखंड के 14 लोकसभा सीटों में से सभी पांच आदिवासी रिजर्व सीटों पर हार गई, जबकि बाबूलाल मरांडी ने पूरे ताम झाम के साथ चुनावी खेल को संभाल रखा था। यहां तक कि पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा, जिनके हाथों में आदिवासी प्रशासन की बड़ी जिम्मेदारी थी, वह भी खूंटी सीट को गंवा बैठे।
इन घटनाओं से एक बात साफ तौर पर उभर कर सामने आई है कि झारखंड में आदिवासियों की एक बड़ी जनसंख्या पर अभी भी झारखंड मुक्ति मोर्चा की पकड़ मजबूत है। इसकी दो ही वजह हो सकती है, एक यह कि झारखंड मुक्ति मोर्चा अपने पारंपरिक तरीके से चुनावों को लड़ती है और दूसरा, उसके मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का जेल में होना।
संभवतः भाजपा इस बात को लेकर निश्चिंत थी कि हेमंत के जेल में होने की वजह से वह आसानी से मैदान मार लेगी। यह उसकी गलतफहमी साबित हुई। भाजपा ने बिना कोई होम वर्क किए सबसे बड़ा खतरा सीता सोरेन और गीता कोड़ा को गलत वक्त पर पार्टी में शामिल करके लिया। दोनों चुनाव हार गईं। इसकी बड़ी जिम्मेदारी तो बाबूलाल मरांडी के ऊपर जाती है, क्योंकि वह पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं।
यदि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव को देखें तो झारखंड साफ तौर पर दो सामाजिक गुटों में विभक्त दिखाई देता है – आदिवासी और गैर आदिवासी। भाजपा ने सभी गैर आदिवासी सीटों पर जीत हासिल की। किंतु आदिवासी सीटों को खोना उसके लिए खतरे की घंटी है।
अब यदि इसी आधार पर आगामी विधानसभा का चुनाव हुआ तो झारखंड में सिर्फ दो ही गुट, आदिवासी और गैर आदिवासी रह जायेंगे; जो भाजपा के लिए सिहरन पैदा करने जैसी राजनीति होगी। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि पार्टी ने दो गैर आदिवासी शिवराज सिंह चौहान और हेमंत बिस्वा शर्मा को झारखंड विधानसभा चुनाव का प्रमुख बनाया है, जिनकी यहां की आदिवासी मतदाताओं पर शून्य पकड़ है।
ऐसे में चुनावी खेल इस रूप में खेला जा सकता है कि केंद्रीय कृषि मंत्री और असम के मुख्य मंत्री झारखंड के गैर आदिवासी लोगों पर अपना जादुई छड़ी घुमाएं और रही बात आदिवासी मतदाताओं की, तो उन्हें अपने विश्वास में लाने के लिए बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा ही काफी हैं।
हालाकि बाबूलाल मरांडी हमेशा इस बात से इंकार करते रहे हैं कि वे महज एक आदिवासी नेता हैं। उनकी पकड़ लगभग सभी समुदायों पर है और संभवतः मरांडी ही एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो बारों महीने झारखंड की जनता के करीब रहते हैं।
फिर भी यहां एक सवाल उठता है कि बीच चुनाव में मरांडी अथवा उनकी पार्टी के विचारकों ने दुमका से अपने जीते हुए सांसद सुनील सोरेन को बिठा कर झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायक सीता सोरेन को अपने दल में शामिल कर दुमका से क्यों चुनाव लड़वाया? सीता सोरेन चुनाव हार गईं, जिसका सीधा असर अब संथाल परगना की राजनीति पर पड़ता दिखाई दे रहा है।
सीता सोरेन की पराजय के बाद दुमका में कोहराम मचा हुआ है। भाजपा या फिर झारखंड मुक्ति मोर्चा इस बात को कतई नजरंदाज नहीं कर सकती कि संथाल परगना के 18 विधानसभा सीट ही वह चाभी है जो दोनों में से किसी एक को राजधानी रांची की सत्ता दिला सकती है।
शायद बाबूलाल मरांडी, जिनका अपना खुद का कार्यक्षेत्र संथाल परगना रहा है, अब इस बात का मंथन कर रहे होंगे कि पार्टी द्वारा सीता सोरेन को दुमका से चुनाव लड़ना एक भूल थी, या फिर घोटाले के आरोपी पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा को पार्टी में शामिल कर गलत कदम उठाया था। यह एक ऐसी गलती थी जो राजनीति के स्कूल स्तर के छात्र ही कर सकते हैं। यहां पर परिपक्वता नहीं दिखाई देती।
यह उठा पटक इसी साल के अंत में होने वाले झारखंड विधानसभा के चुनावों तक जारी रहेगी। शायद पार्टी के अंदर इसी उबलते हुए वातावरण को शांत करने के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा को झारखंड की जिम्मेदारी दी गई है।
