
ब्रजेश वर्मा:
सोलह सौ वर्षों के लम्बे अंतराल में भारत ने अनगिनत राजे-महराजाओं को उठते- गिरते देखा, अरब से लेकर पश्चिमी यूरोप के आक्रमणकारियों को आते-जाते देखा, कई सभ्यताओं के मेल भी इस भूमि पर देखे गए और यहाँ तक कि पर्यावरण में बदलाव के असाधारण रूप को भी देखा गया; इन सभी बातों का एक सबसे बड़ा गवाह दिल्ली स्थित महरौली का वह लौह स्तम्भ है, जो इतने दिनों बादआज भी सुरक्षित खड़ा है.
फिर भी, अब इसकी जड़ें नीचे से कुछ कमजोर होती दिख रही हैं. स्वयं यूनेस्को ने इसे दुनिया की एक सबसे महत्वपूर्ण वास्तु स्वीकार किया है, साथ ही भारत के पुरातत्व विभाग द्वारा इस लौह स्तम्भ के सामने जो जानकारी लगाई गयी है, उसमें इसके कमजोर होने की बात भी कही गयी है.
महरौली के लौह स्तम्भ के बारे में जिन बातों की सबसे अधिक चर्चा होती है, उनमें पिछले 1600 वर्षों के दौरान हुए पर्यावरण में बदलाव के बीच इसका मजबूती से टिका रहना एक रहस्य है. 1961 में इसपर जो कार्बन एवं रासायनिक शोध किए गये, उसके अनुसार यह स्तम्भ शुद्ध स्पात का बना हुआ है, जिसे पिटवा लोहे का धातु कहा जाता है.
यदि आप झारखण्ड के आदिम जनजाति के जीवन और उनके रहस्यों का अध्ययन करेंगे तो वहां आपको असुर नाम की एक आदिम-जनजाति मिलेगी, जिसकी विशेषता प्राचीन समय से ही लोहे को गलाने की रही है. लोहा मानवीय जीवन का वह आविष्कार है जिसने सभ्यताओं को पूरी तरह से बदल दिया. कई लोहों के टुकड़ों को आग में एकसाथ गलाकर उसका हथियारों के अलावा कुछ ऐसे ही स्तंभों का निर्माण करना प्राचीन भारत की एक खूबी रही है.
किन्तु पर्यावरण एक ऐसी चीज है जो कई बदलावों को अपने साथ लाती है. इसकी तुलना सिर्फ समय से ही की जा सकती है. समय को हमरे यहाँ बलवान भी कहा गया है. ऐसे में दिल्ली के पर्यावरणों में लगातार हो रहे बदलाव का भय न सिर्फ यहाँ के निवासियों को सता रहा है, बल्कि महरौली का लौह स्तम्भ भी खतरे में दिखाई देता है. भारत के सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के बिगड़ते पर्यावरण पर कई बार चिंता जाहिर की है.
ऐसे में उस ऐतिहासिक लौह स्तम्भ का क्या होगा जो महरौली में आकाश के नीचे पिछले 1600 वर्षों से खडा है?
ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार यह स्तम्भ शुरू से ही यहाँ खड़ा नहीं था. इसे तोमर वंश के राजा अनंगपाल (1051 ई से 1081 ई तक शासन किया) ने किसी खास धार्मिक स्थल से उठाकर यहाँ लाया था.
इस स्तम्भ पर ब्राह्मणी और संस्कृत लिपि में जो कुछ भी लिखा गया है उससे पता चलता है कि चन्द्र नामक एक राजा ने इसे भगवान विष्णु का एक ध्वज रूप में बनवाया था. चन्द्र से इसका अर्थ गुप्त वंश के महान राजा चन्द्रगुप्त द्वीतीय (375-413), जिन्हें विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जता है, से लगाया जाता है. यह लौह स्तम्भ 7. 20 मीटर उंचा जो 93 सेंटीमीटर जमीन के अन्दर धंसा है. अब इसमें जंग के लगने के आसार नजर आने लगे हैं.

ब्रिटिश भारत में इतिहास के एक सबसे बड़े विद्वान जे.एफ फ्लीट (1847-1917) थे, जो इंडियन सिविल सर्विस से आए थे और जिन्हें गुप्तकाल, चालुक्य, राष्ट्रकूट और सुशान वंश के इतिहास पर गहरी पकड़ थी. उन्होंने तीस साल तक भारत में पाली और संस्कृत भाषओं पर शोध किया था. उन्होंने 1888 में न सिर्फ इलाहबाद के प्राचीन शिलालेख का अध्ययन किया था, बल्कि महरौली के लौह स्तम्भ पर लिखे गये तीन श्लोकों का भी अनुवाद किया.
ब्रिटिश इतिहासकार जे. एफ फ्लीट के अनुसार इस शिलालेख पर चन्द्र नाम के एक राजा का जिक्र है जो इस पृथ्वी पर चंद्रमा के सामान चमकता था. उसी ने अपने आराध्यदेव विष्णु के नाम पर इस लौह स्तम्भ का निर्माण करवाया और उसे विष्णुपद नामक पर्वत पर स्थापित किया था.
इतिहासकार फ्लीट के अनुसार इस शिलालेख में राजा के जिन विशेषताओं का वर्णन किया गया है उसमें धरती पर उसके जैसा और कोई दूसरा राजा नहीं बताया गया है. वह दुश्मनों का नाश करने वाला राजा था. उसने बंगाल से सिन्धु नदी के इलाकों को जीता था.
चन्द्रगुप्त द्वीतीय के समय से आजतक भारत में जो परिवर्तन हुए उनमें- गुप्त वंश के पतन के बाद कन्नौज में हर्षवर्द्धन का आना, बंगाल में शशांक का उदय, हूणों का आक्रमण, फिर हर्ष के बाद बंगाल के पाल, गुर्जर प्रतिहार और राष्ट्रकूट के बीच एक सौ साल की लम्बी लड़ाई चलना जिसे त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है, विक्रमशिला विश्वविध्यालय का उदय, नालंदा को बख्तियार खिलजी द्वारा जला देना, आरब से मुहम्मद बिन कासिम का आना, फिर अनेक मुस्लिम आक्रमणकारियों के वंशों- गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, शैयद वंश, लोदी वंश और मुग़ल वंश आदि का पनपना; मराठो के उदय और पतन, पुर्तगाल से वास्कोडीगामा का भारत आना और उसके पीछे-पीछे डच, फ्रंसीसी और अंग्रेज. भारत में दो सौ साल तक अंग्रेजों का राज करना और फिर 1947 में भारत का बंटवारा तथा अंततः आजादी.

इन सभी बातों का गवाह है महरौली का यह लौह स्तम्भ, जो अब नीचे से थोड़ा जंग खा रहा है. यदि दिल्ली ने अपने पर्यावरण को सुधार लिया तो इस लौह स्तंभ के और भी कई हजार साल सुरक्षित रहने की उम्मीद है!