

ब्रजेश वर्मा:–
नादिरा बेगम भारत की वह पहली महिला थी जिसने कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट में 1777 में मुकदमा जीता था। वह पटना की रहने वाली थी।
बंगाल पर अधिकार करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट पारित कर भारत में अंग्रेजी न्याय प्रणाली की शुरुआत की। इसी दौरान दीवानी अदालतों का गठन हुआ। कलकत्ता चूंकि कंपनी का मुख्यालय था, अतः सदर दीवानी अदालत की स्थापना कलकत्ता में ही हुई, जो सुप्रीम कोर्ट समझा जाता था। उसके पहले मुख्य न्यायाधीश एलिजा इम्पे (1732-1809) थे। साथ ही तीन और भी अपर जजों की नियुक्ति की गई थी, जिनमें स्टीफन सीजर, जॉन हेड और राबर्ट चेंबर शामिल थे। कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट में चार जजों का यही पहला फुल बेंच था।
नादिरा बेगम अमीनाबाद (पटना) की रहने वाली थी, जिसकी शादी अफगानिस्तान के काबुल शहर के एक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वाले सिपाही शाहनवाज बेग से हुई थी। शाहनवाज बेग ने अच्छा पैसा कमाया और नादिरा बेगम से शादी करके पटना में बस गया था।
शाहनवाज और नादिरा की कोई औलाद नहीं थी। फिर शाहनवाज ने काबुल जाकर अपने भतीजे बहादुर बेग को पटना लाया। वह अपनी संपत्ति का वारिस बहादुर बेग को बनाना चाहता था। किंतु इसी बीच शाहनवाज बेग की मृत्यु हो गई और वह अपना वसीयत नही बना पाया।
अब बहादुर बेग ने पटना के काजी और मुफ्ती से मिलकर एक षडयंत्र रचा। उसने अपने चाचा शाहनवाज बेग की संपति का दावा किया। काजी और मुफ्ती ने शरिया क़ानून के तहत अपना फैसला बहादुर बेग के हक में दिया। नादिरा ने पटना के दीवानी अदालत में मुकदमा कर दिया। काजी और मुफ्ती के साथ मिलकर बहादुर बेग ने पटना के जज को घूस देकर फैसला अपने पक्ष में करा लिया।
यहां तक कि बहादुर बेग ने नादिरा बेगम को घर से भी जबरन निकलवा दिया। वह पटना के एक दरगाह में रहने लगी। जब उसका पति जिंदा था, उसके पास बहुत संपत्ति थी। किंतु अब वह दरगाह में गरीबी में जी रही थी।
फिर 1777 में नादिरा बेगम ने कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट में पटना के दीवानी अदालत के फैसले के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया। लंबी बहस और गवाही के बाद न्यायाधीश एलिजा इम्पे के चार जजों वाले फुल बेंच ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि पटना की दीवानी अदालत ने न्यायिक प्रक्रिया का उलंघन किया है और नादिरा बेगम के मुकदमें में अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया है।
कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट ने पटना कोर्ट के फैसले को पलटते हुए नादिरा बेगम को तीन लाख देने का हुक्म दिया साथ ही उसकी क्षतिपूर्ति के एवज में उसे 9208 रुपए का अतिरिक्त मुआवजा भी दिया गया।
उन दिनों तीन लाख रुपए का मूल्य बहुत अधिक था। यह बहुत बड़ा फैसला था। और भारतीय न्याय प्रणाली का यह पहला मुकदमा था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को बदल दिया था। यह फैसला लंबे बहस के बाद फरवरी 1779 में आया था। अदालत ने बहादुर बेग तथा काजी और मुफ्ती दोनो को दंडित किया था।
भारतीय न्याय प्रणाली के इस इतिहास को आज भी एक उदाहरण के रूप में पेश किया जाता है।