ब्रजेश वर्मा:

भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम 28 मार्च 2006 को पटना आए हुए थे. उन्हें बिहार विधान सभा और विधान परिषद् के संयुक्त सत्रों को संबोधित करना था.
भारत के इस महान राष्ट्रपति के मन में बिहार को ज्ञान की ऊँचाइयों पर एक बार फिर से खड़े करने के विचार उभर रहे थे. सदन के सत्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति कलाम ने राजगीर में उस नालंदा विश्वविद्यलय के पुनर्जन्म की सलाह दी जिसे 1193 ई. में आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने जलाकर राख कर दिया था.
राष्ट्रपति की सलाह को टालना असंभव था. और फिर शुरू हुई पर्वी एशिया के उन देशों को इससे जोड़ने की बात जिनके पूर्वजों ने नालंदा में आकर कभी ज्ञान अर्जित किए थे. वर्ष 2007 में जब ईस्ट एशिया समिट में कई देशों के विद्वानों का जमावड़ा हुआ, तो जलाकर राख कर दिए गये प्राचीन नालंदा विश्वविध्यालय को एक बार फिर से खड़े करने की बात उभरी. इसमें भारत सहित चीन, जापान, सिंगापुर, मलेशिया, वियतनाम अदि शामिल थे और बाद में आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी जुड़ गये.
सबसे बड़ी जिम्मेदारी बिहार सरकार की थी. वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव में बिहार के लोगों ने अपने पिछले पंद्रह साल के ‘अंधकार युग’ से बाहर निकल कर एकबार फिर से प्रकाश की तरफ जाने की कोशिश की थी. अब बिहार सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी नए नालंदा विश्वविध्यालय के लिए जमीन का हस्तांतरण था. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसके लिए राजगीर में लगभग 443 एकड़ जमीन का हस्तांतरण किया. फिर 21 अगस्त 2010 को राज्यसभा और फिर उसी साल 26 अगस्त को लोकसभा में नालंदा विश्वविद्यालय बिल पास किया गया. विभिन्न देशों के सहयोग से 1.7 मिलियन डालर की सहायता मिली.

यह भारत सरकार का की एक सबसे बड़ी योजना थी. एक बार फिर से, नए तरीके से आधुनिक नालंदा विश्वविद्यालय के भवनों का निर्माण हुआ, जिसे उसी तरीके से बनाने की कोशिश की गयी है जिसे 12वीं सदी के अंत में एक लुटेरे द्वारा जला दिया गया था. दर्शन, इतिहास, पर्यावरण, बौद्ध विचार तथा भाषा-साहित्य के अध्ययन को स्थापित किया गया और 1 सितम्बर 2014 में यहाँ नए सत्र की शुरुआत कर दी गयी.
प्राचीन नालंदा के गौरव को वापस लाने; एक प्रकार से इसे पुर्नार्जीवीत करने के लिए, एक ऐसे विद्वान की तलाश थी जो इसके पहले कुलपति के पद को सुशोभित कर सकें. इसके लिए नावेल विजेता अर्थशात्री अमर्त्य सेन की नियुक्ति की गयी.
नालंदा के प्राचीन गौरव को तो अब वापस नहीं लाया जा सकता, किन्तु इसकी यादें सदा दिल में बस्ती रहेंगी. यह बिहार का वह प्राचीन गौरव है, जहाँ से ज्ञान परिभाषित हुआ करती थी.
