ब्रजेश वर्मा:-

सबसे बड़ी घटना 1910 में घटी। सच्चिदानंद सिन्हा (1871-1950) जब इंपीरियल काउंसिल के सत्र में भाग लेने के लिए शिमला गए, तो वायसराय लॉर्ड मिंटो (1845-1914) ने उन्हें दिन के भोजन पर बुलाया। एक लंबी बातचीत के बाद वायसराय ने सच्चिदानंद सिन्हा से जो प्रशासनिक सलाह ली, वही अंत में बिहार के एक पृथक प्रांत के निर्माण का कारण बना।
मामला कुछ इस प्रकार था। लॉड सिन्हा (1863-1928), जिन्हें हम सत्येंद्र प्रसन्न सिन्हा उर्फ सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा उर्फ एस पी सिन्हा के नाम से भी जानते हैं, ने अग्रहपूर्वक भारत सरकार के लॉ मेंबर के पद से इस्तीफा दे दिया था।
लॉर्ड सिन्हा उन दिनों एक बड़ी हस्ती थे। जब बिहार और उड़ीसा बंगाल से अलग हुआ तो वे इसके पहले गवर्नर थे और उससे पहले वे एडवोकेट जनरल ऑफ बंगाल भी रह चुके थे। उनका जन्म बंगाल के रायपुर (बोलपुर के पास) हुआ था। वकालत से उनकी आमदनी दस हजार पाउण्ड थी। किंतु गोपाल कृष्ण गोखले (1866-1915) की सलाह पर उन्होंने अपने इस आमदनी को त्यागकर लॉ मेंबर का पद स्वीकार किया था, क्योंकि इस पद पर रहते हुए वे वकालत नही कर सकते थे। अतः 1910 में उन्होंने स्वेच्छा से त्यागपत्र दे दिया।
वायसराय लॉर्ड मिंटो को लॉ मेंबर पर अपने अनुरूप एक व्यक्ति चाहिए था और उस दिन शिमला में इसी उद्देश्य से उन्होंने सच्चिदानंद सिन्हा को खाने पर बुलाया।
सितंबर का महीना था। मिंटो से सच्चिदानंद सिन्हा से कहा कि चूंकि लॉर्ड सिन्हा ने ब्रिटिश सरकार के लॉ मेंबर के पद से इस्तीफा दे दिया है तो सरकार चाहती है कि इस पद पर बंबई के जस्टिस दावर के नाम का प्रस्ताव भेजा जाए।
इस नाम को सुनकर सच्चिदानंद सिन्हा का माथा ठनका। बिहार को बंगाल से अलग करने का आंदोलन अंतिम चरण में था और यदि जस्टिस दावर लॉ मेंबर बनते तो बिहार बंगाल से कभी अलग नही होता।
सच्चिदानंद सिन्हा ने एक चाल चली। उन्होंने वायसराय लॉर्ड मिंटो को समझाया कि ये वही जस्टिस दावर हैं, जिन्होंने बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) को राजद्रोह की सजा सुनाई थी।  सिन्हा ने वायसराय से कहा कि यदि जस्टिस दावर को लॉ मेंबर बनाया गया तो भारत की राजनीतिक पार्टियां जो स्वतंत्रता आंदोलन कर रही हैं इसका विरोध करेंगी। फिर उन्हें सिन्हा ने यह भी समझाया कि एक न्यायाधीश का लॉ मेंबर बनना ठीक नहीं लगेगा।
कुछ देर सोचने के बाद वायसराय ने सच्चिदानंद सिन्हा से पूछा कि दरअसल वे इस पद को किसी मुसलमान को देना चाहते हैं। अगर उनके पास कोई नाम है तो बताइए।
सच्चिदानंद सिन्हा ने तुरंत बिहार के एक सबसे बड़े मुस्लिम व्यक्तित्व सर अली इमाम के नाम का सुझाव रख दिया। सिन्हा के मन में कुछ और ही चल रहा था। अली इमाम और सच्चिदानंद सिन्हा के बीच गहरी दोस्ती थी। सिन्हा ने सोचा कि यदि अली इमाम लॉ मेंबर के पद पर आ गए तो उन्हें सरकार पर बंगाल को बिहार से अलग करने के दवाब का अवसर मिल जायेगा।
वायसराय मिंटो ने इस शर्त पर अपनी सहमति जताई कि सच्चिदानंद सिन्हा को कलकत्ता जाकर अली इमाम को मानना होगा क्योंकि उन दिनों उनकी जबरदस्त वकालत चलती थी। साथ ही वायसराय ने सिन्हा से कहा कि अली इमाम की नियुक्ति पत्र को उन्हें खुद लेकर कलकत्ता जाना होगा और वहां से उनकी स्वीकृति भी लानी होगी। सिन्हा राजी हो गए।
किंतु सच्चिदानंद सिन्हा ने इस संबंध में अली इमाम से कोई बात पूर्व में नही की थी। उन्हें सिर्फ अपनी दोस्ती पर भरोसा था। जब वह अली इमाम के नितुक्तिपत्र को लेकर कलकत्ता पहुंचे तो उसे देख अली इमाम गुस्से में आ गए। उन्होंने लॉ मेंबर के पद को लेना अस्वीकार कर दिया।
सच्चिदानंद सिन्हा लिखते हैं कि उनके आज के बिहारियों को यह समझना मुश्किल होगा कि इस पद के लिए उन्हें अली इमाम को मानने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ी थी। अंत में सिन्हा ने इमाम को बिहार के बंगाल से अलग होने के आंदोलन का वास्ता दिया और कहा कि यदि उन्होंने इस पद को स्वीकार कर लिया तो बंगाल से बिहार निश्चित रूप से अलग हो जायेगा।
अली इमाम मान गए और सच्चिदानंद सिन्हा ने उनकी स्वीकृति पत्र को पोस्टऑफिस जाकर खुद अपने हाथों से वायसराय लॉर्ड मिंटो को रजिस्ट्री डाक से भेज दिया। यदि इस पद पर कोई बंगाल का मुसलमान होता तो बिहार अलग नही हो पाता। यह एक ऐसा आंदोलन था जिसमें 1894 से 1911 के बीच एक भी नारेवाजी, धरना, प्रदर्शन नही हुआ था। सच्चिदानंद सिन्हा अखबारों तथा अपने विचारों के माध्यम से इस लड़ाई को लड़ रहे थे, जिनमें बड़ी संख्या में पत्रकार और प्रबुद्ध लोग जुड़े हुए थे, जबकि बंगाल इसका विरोध कर रहा था।
शिमला में शरद ऋतु -1911, जब लेजिस्लेटिव काउंसिल का अधिवेशन शुरू हुआ। एक लॉ मेंबर की हैसियत से अली इमाम शिमला पहुंचे। सच्चिदानंद सिन्हा और अली इमाम एक ही कमरे में ठहरे हुए थे। इसी समय घोषणा हुई कि ब्रिटेन के सम्राट जार्ज पंचम (1865-1936) और महारानी मेरी (1867-1935) दिसंबर में आयोजित होने वाले दिल्ली दरबार में आयेंगे।
उस दिन मुहम्मद अली (1875-1931) भी सर अली इमाम से मिलने शिमला आए। सच्चिदानंद सिन्हा पहले से वहीं बैठे थे। उन्होंने मुहम्मद अली से कहा कि बेहतर होगा कि सम्राट जार्ज पंचम अपने इसी दरबार में दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित कर दें।
अली इमाम जो पास ही में थे, गुस्से से अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए और कहा, यह एक पागलपन है और मूर्खता से भरा हुआ प्रस्ताव भी। दिल्ली एक जर्जर और सड़ी हुई जगह है। कोई भी ब्रिटिश सरकार इसे अपनी राजधानी नही बनानी चाहेगी।
बात आई गई हो गई। जब मुहम्मद अली कमरे से बाहर चले गए तब सच्चिदानंद सिन्हा ने अली इमाम से कहा कि यह उत्साह का समय नही है। लॉर्ड कर्जन (1959-1925) के बंगाल विभाजन के बाद एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ है और अब पूर्वी भारत (बिहार) में एकबार फिर से संयोजन का समय है।
सिन्हा की इन बातों के सुनकर अली इमाम ने गुस्से से उनकी ओर देखते हुए कहा, आप समझते हैं, “आप बहुत ही होशियार हैं?”
जवाब में सच्चिदानंद सिन्हा ने कहा,” मैं समझता हूं कि मैं हूं।”
अली इमाम थोड़ी देर चुप रहे और फिर कहा, “आपने जो बिहार विभाजन से संबंधित जो पुस्तिका तैयार की है, उसकी दो कॉपी मुझे दे दीजिए। मैं इसे फिर से पढ़ना चाहता हूं।”
बिहार विभाजन से संबंधित अपनी तैयार की गई पुस्तिका को उन्हें देते हुए सिन्हा ने कहा, “आपके लॉ मेंबर होते हुए बिहार की जनता किंग एंपेरर से एक बड़ा वरदान पाएगी, जिसकी वे इच्छा रखते हैं और जो इसके लायक हैं, अर्थात बिहार उनका अपना अलग प्रांत बने।”
अली इमाम ने उस समय सिर्फ इतना कहा कि देखते हैं वे क्या कर सकते हैं
फिर 12 दिसंबर 1911 के दिल्ली दरबार में ब्रिटेन के सम्राट जार्ज पंचम ने बंगाल का विभाजन करते हुए बिहार और उड़ीसा को एकसाथ मिलाकर एक अलग प्रांत बना दिया। इसे लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन किया गया।
लॉर्ड एस पी सिन्हा, जिन्होंने लॉ मेंबर के पद से स्वेच्छा से त्यागपत्र दिया था, उन्होंने सच्चिदानंद सिन्हा से कहा कि अली इमाम को इस पद को दिलाने में यदि आपकी मंशा को मैं जान गया होता तो मैं कभी भी इस पद से अपना इस्तीफा नही देता।

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.