ब्रजेश वर्मा:-

जॉन मार्शल, जिसने “नोट्स एंड ओब्जार्वेशन इन बंगाल- 1668-1672” नामक ग्रंथ की रचना की थी, ने 1670 में बिहार में भागलपुर जिले के सुल्तानगंज की गंगा यात्रा की थी।
जॉन मार्शल पहला अंग्रेज यात्री था जिसने सुल्तानगंज में गंगा नदी की यात्रा अपने एक ग्रंथ की रचना के उद्देश्य से किया होगा।
उसके बाद एक डच यात्री जिसका नाम डी. ग्राफ था, ने भी लगभग इसी समय सुल्तानगंज स्थित उत्तर वाहिनी गंगा को बहते देखा था।
ग्राफ के अनुसार, पहाड़ों से टकराने वाली तेज धार में कई नावों को यहां पर डूबते हुए देखा गया था।
सुल्तानगंज के पास राजा कर्ण का को किला हुआ करता था, उसे ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्नल हट्सन ने उखाड़ कर उन ईंटों का इस्तेमाल नील के कारखाने को बनाने में कर लिया। इसका वर्णन बंगाल ऑर्बिटी 1848 में है, जिसमें कहा गया है कि 12 सितंबर 1820 को  कर्नल हट्सन की मृत्यु हुई, जिसने अपने जीवन के 40 साल सुल्तानगंज में ही गुजारे थे। उसने ही सुल्तानगंज में नील की खेती शुरू की थी।
आज के दौर में अक्सर सुल्तानगंज को श्रावणी मेले तक ही सीमित रखा जाता है, जबकि यह स्थान रहस्य और रोमांच से भरा है, जैसा कि जॉन मार्शल और डी. ग्राफ को पढ़कर पता चलता है।
एक दिन पहले जब बनारस से चलकर गंगा विलास क्रूज सुल्तानगंज पहुंचा, तो एक बार फिर से पश्चिम के उन नाविकों की याद आ गई, जिन्होंने मध्यकाल में गंगा के रास्ते सुल्तानगंज को खोजा था। फ्रांसिस बुकानन, जिसके सहारे आज के इतिहासकार आगे बढ़ते हैं, वह तो बहुत बाद की चीज है, क्योंकि बुकानन ने अपनी यात्रा के दौरान खुद मार्शल और ग्राफ का अध्ययन किया था।
गंगा विलास क्रूज, जो कि 3200 किलोमीटर की यात्रा बनारस के गंगा नदी से चलकर असम के ब्रह्मपुत्र नदी में समाप्त करेगा, एक ऐसी उम्मीद को जगाता है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। यह पूरा का पूरा इलाका जहाजी यात्रियों, जिनमें मुगल, अफगान, सुल्तान, पुर्तगाल, डच, फ्रांसीसी और ब्रिटिश नाविकों से भरा रहा करता था, इन नदियों में ऐसी आवाजाही सदा के लिए खत्म हो चुकी थी।
इसका एक बड़ा कारण नदियों पर पुलों का निर्माण हो सकता है। आज के लोग त्वरित यात्रा के गुलाम हैं। वे रफ्तार चाहते हैं। इसका मतलब यह नही होता कि जल मार्ग को एकदम से बरबाद कर दिया जाए।
खासकर भागलपुर के इलाके में, कुछ दशक पहले तक फेरी सर्विस के तहत बड़े जहाजों को गंगा नदी में देखा जा सकता था। पुल बनने के बाद यह बंद हो गया।
किंतु किसी बड़े से जहाज पर नदियों के मार्ग से यात्रा करने का जो रोमांच है, उसकी तुलना किसी भी यात्रा से नही की जा सकती। जाने पहचाने हुए नाविकों में कोलंबस से वास्को डी गामा और उसके बाद लाखों समुद्री यात्रियों की कहानियां जितना रोमांच पैदा करती हैं, वह कहीं नहीं मिलती। हजारों पुस्तकों की रचनाएं ऐसे ही नही हुई। दुनिया भर में लाखों लोग थे जो पानी के मार्ग से अपने गंतव्य तक पहुंचते थे।
उत्तर भारत में आज यह लगभग खत्म हो चुका है। इसके और भी कई कारण होंगे, जिनमें से नदियों का मर जाना भी एक हो सकता है। इस दिशा में गंगा विलास यात्रा उन मृत प्राय नदियों को पुनर्जीवित करने का एक बड़ा कदम साबित हो सकता है। अभी विदेशी लोग इसका लुत्फ उठा रहे हैं, आगे अपने लोग भी उठाएंगे। रेल से यात्रा कर भारत भूमि को बहुत देखा, अब जलमार्ग से देखिए।
(Photo by Raja Bose)

गंगा विलास यात्रा
झील में
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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.