ब्रजेश वर्मा:-
दुमका: आदिवासियों के नाम पर बनाए गए झारखंड राज्य के पूर्वी इलाके में, जो संथाल परगना के नाम से जाना जाता है, अब यहां जनसंख्या का भारी उथल- पथल देखा जा रहा है, जिनमें कुल छह जिले वाले इस इलाके में से दो जिलों में आदिवासियों की जगह मुसलमानों ने अपनी बढ़त बना ली है।
जिन जिलों में मुसलमानों की जनसंख्या आदिवासियों से लगातार बढ़ी हैं वे जिले गंगा नदी के किनारे बसे साहेबगंज और पाकुड़ के इलाके हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार साहेबगंज जिले में मुसलमानों की आबादी लगभग 3 लाख 98 हजार हो गई है, जबकि आदिवासी घटते हुए लगभग 3 लाख 8 हजार की कुल तादात में सिमट चुके हैं। यदि कुल जनसंख्या को प्रतिशत के हिसाब से निकाला जाए तो गंगा नदी के किनारे साहेबगंज जिले में अब मात्र  26 प्रतिशत आदिवासी बचे हैं, जबकि मुसलमान तेजी से बढ़कर 34 प्रतिशत हो गए हैं।
यही हाल पाकुड़ जिले का है जहां मुसलमान और आदिवासी लगभग बराबरी पर आ गए हैं। पाकुड़ जिला, जो झारखंड के पूर्वी इलाके में अंतिम छोर पर बंगाल से सटा हुआ है, वहां 2011 की जनगणना के अनुसार मुसलमानों की जनसंख्या 3 लाख 22 हजार और आदिवासियों की जनसंख्या 3 लाख 79 हजार है, जो प्रतिशत के हिसाब से क्रमशः 35 प्रतिशत और 42 प्रतिशत पर टिका हुआ हैं।
झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने संथाल परगना में हो चुके जनसंख्या के इस बदलाव को देखते हुए राज्य सरकार से तुरंत  एक एस आई टी का गठन कर इसकी जांच कराने की मांग की है।
संथाल परगना में आदिवासियों के अस्तित्व को खतरे में बताते हुए बाबूलाल मरांडी ने मुसलमानों की लगातार बढ़ती हुई इस आबादी के पीछे व्यापक पैमाने पर यहां हो रहे बांग्लादेशी घुसपैठ को भी एक कारण बताया है।
मरांडी का कहना है कि चूंकि जनसंख्या विस्तार का जो ट्रेंड मुसलमानों के बीच चलता आ रहा है, उसमें यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे संथाल परगना में 2031 तक मुसलमान बढ़कर 29 लाख के करीब हो जायेंगे, जबकि आदिवासी घटकर 25 लाख पर सिमट जायेंगे। फिर इसका इस आदिवासी बहुल इलाके पर गहरा असर पड़ेगा।
संथाल परगना में कुल छह जिले हैं-  पाकुड़, साहेबगंज, गोड्डा, दुमका, देवघर और जामताड़ा, जहां कुल तीन लोकसभा और 18 विधान सभा क्षेत्र हैं। इनमें से दो लोक सभा क्षेत्र राजमहल और दुमका को तथा कम से कम दस विधान सभा क्षेत्रों को मुस्लिम और आदिवासी मतदाताओं द्वारा प्रभावित किया जाता है।
अभी चूंकि 2021 में कोई जनगणना नही हुई है, तो जनसंख्या में हो रहे इन बदलाव के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि संथाल परगना से आदिवासियों के दिन अब लद चुके हैं। न सिर्फ वे अपनी जमीनों को खोते जा रहे हैं, बल्कि समाज में उनकी भूमिका अब मजदूरों के रूप में तब्दील हो चुकी है।
आजाद भारत में हुई 1951 की जनगणना में पूरे संथाल परगना में 44 प्रतिशत के साथ आदिवासियों की कुल आबादी लगभग 10 लाख 37 हजार थी, जबकि मुसलमानों की जनसंख्या मात्र 9 प्रतिशत के हिसाब से 2 लाख 19 हजार ही थी।
मुसलमानों की इस आबादी का विस्तार 1971 में बांग्लादेश में हुए भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के बाद हुआ, जबकि उन दिनों की भारत सरकार ने बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी शरणाथियों को पश्चिमी  बंगाल सहित तत्कालीन बिहार, अब संथाल परगना, के इन इलाकों में बसाया। 1971 की जनगणना में संथाल परगना में मुसलमान 9 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत के साथ 4 लाख 66 हजार से अधिक हो गए, जबकि आदिवासी 44 प्रतिशत से घटकर 36 प्रतिशत हो गए।
फिर को बांग्लादेशी घुसपैठियों का जो बिस्तर हुआ, वह 2011 में  मुसलमानों को 22 प्रतिशत के साथ 15 लाख 84 हजार पर ला खड़ा कर दिया।
  इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी को खासकर साहेबगंज के राजमहल इलाके के उधवा में बसाया गया, जो धीरे धीरे पूरे राजमहल, तीनपहाड़, बोरियो, बरहेट और गोड्डा के सुंदर पहाड़ी तक फैल गए। इन घुसपैठियों ने सबसे पहले बीडियों के निर्माण से जुड़े व्यापार पर कब्जा किया और आगे चलकर पत्थरों के अवैध खनन, मवेशियों,  फलों, मछलियों और व्यापक पैमाने पर जमीन की खरीद बिक्री पर अपना दबदवा जमा लिया।
फिर  ये चुनावों में खड़े होने लगे और उन दलों के साथ अपना तालमेल बैठाया, जो उनके मन की इच्छाओं की पूर्ति कर रहे थे। पाकुड़ के इलाके में कुछ बड़े मुस्लिम नेताओं का उदय हुआ। उन्होंने भरपूर घन कमाया और घुसपैठियों को गंगा के किनारे वाले इलाके से लेकर पहाड़ों की तलहटी और सड़कों के किनारे तक बसाया।
बरहेट का भोगनाडीह इलाका, जहां से 1855 में सिद्धू कान्हु ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन कर इस इलाके को संथाल आदिवासियों का पवित्र भूमि बना दिया था, उस बरहेट के सड़कों के किनारे और आगे चलकर बोरियो एवं बड़हड़वा तक सड़कों के किनारे बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसा दिया। अब वो अपनी जनसंख्या का विस्तार करते हुए, इस हाल में पहुंच चुके हैं कि दर्जनों गांवों से सरकार को कोई रेवेन्यू नही मिल रहा।
संथाल परगना के इन इलाकों में मुसलमानों की बढ़ती आबादी का सीधा असर राजमहल की पहाड़ियों सहित दुमका स्थित शिकारीपाड़ा के पत्थर खदानों पर पड़ा, जहां बड़े पैमाने पर बंगाल के मुस्लिम व्यापारियों का अड्डा बन गया। पुलिस के रिकॉर्ड में ऐसे दर्जनों अपराध के मामले हैं जो पत्थर खदानों में बंगाल के मुसलमानों से जुड़े हुए हैं
इस बीच आदिवासियों का क्या हुआ वाह एक गंभीर सवाल है। दुमका जिले के मसलिया, काठीकुंड, रामगढ़ और जामा के अलावा साहेबगंज और पाकुड़ के इलाके के महेशपुर, लिट्टीपाड़ा, राजमहल, बरहेट, बोरियो, हिरणपुर आदि स्थानों से हजारों आदिवासी जम्मू कश्मीर से लेकर नेपाल की तराई वाले इलाके में मजदूरी करने चले गए। उतनी ही बड़ी संख्या में आदिवासी महिलाओं का पलायन हुआ और वे कलकत्ता, वर्धमान, बंबई, दिल्ली तक जाकर मजदूरी और घरेलू नौकरानी का काम करने लगी, जहां उनका भरपूर शोषण होता रहा है।
ऐसी बात नहीं है कि मुसलमान 1971 के भारत पाक युद्ध के बाद ही बांग्लादेश के रास्ते यहां आए थे। यदि इतिहास को देखा जाए तो सल्तनत और मुगल काल से ही साहेबगंज जिले का राजमहल इलाका उनके अधीन था। तब सहेबगाज का कोई अस्तित्व भी नहीं था, यह पूरा इलाका राजमहल के नाम से जाना जाता था, जिसपर शेरशाह, मानसिंह , शाह शुजा और मीर जुमला का कब्जा था।
फिर भी आबादी अपने हिसाब से चल रही थी। समस्या तब उठी जब यहां के कुछ स्थानीय नेताओं ने बांग्लादेशी घुसपैठियों को चुपचाप बसाना शुरू किया और झारखंड की सरकारों ने आंखें मूंदे रखा। यह आबादी अब जामताड़ा, मधुपुर, दुमका और गोड्डा के कुछ इलाके तक फैल गई है।

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.