रेखा शाह आरबी:-

अप्रैल में सिर्फ खेतों में गेहूं की ही कटाई नहीं होती है बल्कि और भी बहुत कुछ कटता  घटता है ।किसी मां-बाप का सपना  चकनाचूर होता है । कोई  लाचार होता है । अप्रैल में खेतों में गेहूं के अलावा स्कूलों में पेरेंट्स की भी खूब कटाई होती है। और यह कटाई हार्वेस्टर मशीनों के जैसे होती है। अनाज सारा निकाल लिया जाता है ।और भूषा और पुआल बचा दिया जाता  है । कोई यह खर्चा खेत गिरवी रखकर पूरा करता है । तो कोई खेत के कटे सारे गेहूं बेचकर पूरा करता है। कोई पत्नी के जेवर बेचकर पूरा करता है । तो कोई खेत ही बेचकर पूरा करता है। वह गेहूं भी भाग्यवान होता है जो कि किसी गरीब की झोपड़ी में पककर उसके पेट में जाने के बजाय किसी अमीर स्कूल संचालक के हाथों में सरस्वती पाने में अपने आप को मिटाता है।
जब मैं स्कूल में पढ़ती थी एक से तीन तक तो दस- बारह रुपए की फीस थी । और एक स्कूल ड्रेस मात्र इतना ही खर्च था।  पांच भाई-बहन थे फिर भी कोई टेंशन नहीं था। एक किताब छोड़ता  तो उसके नीचे वाला भाई-बहन पढ़ लेता था । परिवार में एक बार किताब खरीदने का चलन था । और उससे सारे भाई-बहन   निपट गये थे  । अच्छा हुआ अब ज्यादा बच्चे पैदा करने का चलन नहीं है । नहीं तो आदमी अपने को बेचकर भी हर बच्चे के लिए अलग किताब नहीं खरीद पाता। और माता-पिता ही निपट जाते।
मोहल्ले में एक परिवार भी अगर किताब खरीदने लायक होता था । तो मोहल्ले के सारे बच्चे आगे-पीछे वाले  एडजस्ट कर कर पढ़ लेते थे । वह एडजस्टमेंट का जमाना था। फिर पांचवी क्लास में पहुंची तब भी कुछ खास नहीं बदला था । उस समय के आचार्य जी लोग भी इतने पिछड़े बुद्धि के थे कि उनका ध्यान खाली पढ़ाने पर ही लगा रहता था।  वह कभी  टाई, मोजे, बेल्ट ,बैच, ड्रेस पर ध्यान नहीं दिए और ना ही इनके नहीं रहने पर कभी घर भेजने का आनंद  दिया। ना जूते की चमक की तरफ ध्यान  देते थे । खाली पढ़ाई- पढ़ाई- पढ़ाई से अधिक बेचारों ने कुछ सीखा ही नहीं था।
कभी-कभी तो बिना स्कूल में किताब के भी पहुंच जाने पर भी पढ़ाई से पिंड नहीं छूटता था। क्लास से बाहर बैठाने के बजाय दूसरे बालकों के पास बैठाकर उसकी किताब से ही पढ़वा देते थे । लेकिन मजाल है की किताब नहीं रहने होने पर आराम से घर भेज दिया जाए । आजकल के बच्चों के मजे हैं किताब अगर नहीं है ।  घर बैठ मौज उड़ाओ  घर जाओ । टाई अगर नहीं है तो घर जाओ । लगता है आजकल बच्चों के बजाय उनकी टाई, मोजे  और जूते ही पढ़ाई करते हैं।
पहले के सरस्वती शिशु मंदिर बच्चों के ऊपर पढ़ाई के अलावा ज्ञान ध्यान और बड़ों के सम्मान के ऊपर ध्यान देते थे । जैसे –कैसे अपने बड़ों का सम्मान करना है । कैसे भोजन के लिए प्रकृति रूपी परमेश्वर को धन्यवाद करना है । कैसे अन्य बच्चों के साथ मिलजुल कर भोजन शेयर करना है । आदि सब कुछ सीखाते थे । आजकल के स्कूल भी पीछे नहीं है । यह भी बच्चों के ऊपर पूरा ध्यान देते हैं । आजकल के स्कूल बच्चों के नख से लेकर शिख तक ध्यान देते हैं।  बच्चों की ड्रेस से लेकर उसके टाई, बेल्ट ,बैच ,बैग ,जूते चप्पल सब उसको ए वन का अपने स्कूल में ही उपलब्ध कराते हैं । वह तो बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता का भी भरपूर ध्यान रखते हैं । वह ध्यान रखते हैं कि अप्रैल की चिलचिलाती धूप में खरीदारी के लिए पेरेंट्स को भटकने का दुख नहीं उठाना पड़े । और वह सारी चीज अपने स्कूल में ही उपलब्ध करवाते है। आप चाहे जो सोचिए लेकिन बिल्कुल आसान नहीं है पढ़ाई के अलावा इतनी सारी जिम्मेदारियां का बोझ लेकर अपने सर पर चलना ।
देख लीजिएगा एक दिन ऐसा जरूर आएगा कि यह सेवाभावी स्कूल वाले खुद के नाई ,मोची ,सब्जी फॉर्चून सब बच्चों के हित के लिए बेचेंगे । ताकि बच्चा कुछ अनहेल्दी खा और पहन ना सके । साथ ही बच्चों के माता-पिता का भी ख्याल रख सके।
(फोटो साभार गूगल )

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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.