रेखा शाह आरबी:-
जूते पैरों की  आन, बान, शान होते हैं ।जूते पहले हमारे देश में आम आदमी को  बनाने का अधिकार था । तो ज्यादातर उसे ही खाने का भी अधिकार था। कोई भी उसे जूता खिला देता था। स्कूल में गुरुजी ,घर में बाबूजी, तो कभी बड़े भाई बहन और कभी-कभी तो अड़ोसी पड़ोसी तक खिला देते थे।
पहले लोग बुरा भी नहीं मानते थे। क्या होता था कि बनाने वाले भी अपने, खिलाने वाले भी अपने, खाने वाले भी अपने होते थे। तो बुरा क्या मानना था ।
और आजकल लोग बुरा इसलिए मानते हैं कि आजकल लोग अपनों को अपना नहीं मानते हैं । जूते  आम-खास सब पहनते थे । जूते बनाने का ज्यादातर काम अब कुछ ब्रांडेड कंपनियों के पास  है।तो जूते  खाने का काम भी ज्यादातर ब्रांडेड लोगों के पास ही है। आम आदमी के पास खाने के लिए खाना नहीं है तो वह जूते क्या खाएगा। गरीब न  ब्रांड वाले जूता पहनता है ना खाता है। और ना जूते वाली क्लास से उसको कोई सरोकार है।गरीब का  कोई बांड  नही होता है ।
जूता बहुत काम की चीज होती है । साथ ही यह दो मुही तलवार भी होता है । पैर में पड़ा हो तो इज्जत बढ़ा देता है। सर पर पड़ा तो बेहद निर्दयता से इज्जत उतार भी लेता है  । हां इसके लिए ब्रांड से कोई लेना देना नहीं है । बिना ब्रांड के भी जूते वही काम करते हैं जो ब्रांडेड जूते करते हैं । जूते का सीधा संबंध हमारे सम्मान से कुछ यूं जुड़ा होता  है। यदि घर में पड़ता है तो हमें सुधार देता है और यदि बीच बाजार पड़ता है तो मतलब हमारे सारे ग्रह नक्षत्र को बिगाड़ देता है।
जूते को कभी  आम  मत समझिए । जवानी के दिनों में अनेक दिल फेक आशिक मिजाज जब जब अपनी प्रेमिकाओं के गली में गए । तब तक अपनी जुल्फों के साथ-साथ अपने जूते भी चमका कर जाते थे । लेकिन उल्टा तब पड़ जाता था जब  अपनी प्रेमिका के भाइयों के हाथ जूतारस का रसास्वादन किया । तब तब उन्हें प्रेम रोग से मोक्ष प्राप्त हुआ । और कितनों ने कई कई बार खाने के बाद मोक्ष प्राप्त किया। जूता एक उसके रंग अनेक होते हैं।
कई बार हमे बचपन में पढ़ते हुए पाठ याद नहीं हो पाता था।  लाख रट्टा मारे लाख सिर पीटे किंतु याद होने का नाम ही नहीं लेता था। सारे तंत्र मंत्र करके देख लेते थे। किताब में मोर पंख रखते। पुस्तक देवी को सौ सौ प्रणाम करते। लेकिन पाठ याद नहीं हो पाता था। लेकिन ज्यो ही बाबूजी का  जूता  सिर पर तबला बजाता । आश्चर्यजनक रूप से कुछ ही मिनटों में सब कुछ याद हो जाता था ।
अतः यह सब भूला बिसरा याद कराने में सक्षम था । तो इस प्रकार जूता अव्यवस्थित याददाश्त को एक व्यवस्थात्मक प्रणाली में लाने का भी सहायक होता है।   इतिहास गवाह है जब -जब बच्चों ने अपने बाप के हाथ में जूता देखा उनका सारा भूत प्रेत भाग जाता था। और उनकी सारी बुरी बीमारी है दूर हो जाती थी ।अतः जूता को बाल सुधार यंत्र भी कहा जा सकता है। जिसका न कल कोई तोड़ था ना आज कोई तोड है।
कुछ लोग अपनी गरीबी के चलते जूते पहनने के बिल्कुल काबिल नहीं होते हैं। कभी  कुछ लोग  हां जूते खाने लायक जरूर होते हैं। अतः जब आप उन्हें जूते खिलाएं तो आप अपने पैरों के जूते को तैयार रखिए। दौड़ कर भागने के लिए । जितना तेज आपके जूते चलेंगे उतना आपके बचने की संभावना ज्यादा रहेगी। वरना थप्पड़ खाने से ज्यादा लोग जूता खाना बुरा मान जाते हैं ।
जबकि दोनों खाना अच्छा नहीं माना जाता है। इसमें भी लोग भेदभाव कर जाते हैं। अगर आपको नहीं विश्वास है तो आप किसी से पूछ कर देख लीजिए कि महोदय आप जूते खाएंगे या थप्पड़ खायेंगे । सामने से आपको सामान्य जवाब तो मिलेगा ही नहीं दोनों के उत्तर  में महोदय को लाल पीला होना है।
जूते में इतनी  बुराई होने के बावजूद शादी ब्याह में दूल्हे की सालिया ना दूल्हे का बटुआ चुराती है ना घड़ी चुराती है ना चश्मा चुराती हैं। वह चुराती  है तो दूल्हे के जूते चुराती हैं । और जूते के ओरिजिनल दाम से चौगुना   दाम लेने के बाद ही देती हैं। इसी प्रकार हमारे देश के मंदिरों के बाहर बाकायदा जूता चोर बैठे रहते हैं ।इधर आप दर्शन पूजन में लीन हुए उधर आपके जूते किसी औरों के पैरों में पड कर चल दिए।
उसके बाद आपके पास झक मारने के सिवा कुछ नहीं बचता। जूते में लाख बुराई सही लेकिन फिर भी जूते की पूछ कम नहीं है।  अतः आप  कोशिश कीजिए कि आपके जूते सही सलामत आपके पैरों में पड़े रहे ना कि सिर पर पड़े। अगर आपके जूते को सर की लत लग ही गई है तो कम से कम वह सर दूसरे का हो।
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By lamppost

Dr. Brajesh Verma was born on February 26, 1958, in the Bhagalpur district of Bihar. He has been in the field of journalism since 1987. He has worked as a sub-editor in a Hindi daily, Navbharat Times, and as a senior reporter in Hindustan Times, Patna and Ranchi respectively. Dr. Verma has authored several books including Hindustan Times Ke Saath Mere Din, Pratham Bihari: Deep Narayan Singh (1875–1935), Rashtrawadi Musalman (1885–1934), Muslim Siyaasat, Rajmahal and novels like Humsaya, Bihar – 1911, Rajyashri, Nadira Begum – 1777, Sarkar Babu, Chandana, Gulrukh Begum – 1661, The Second Line of Defence and Bandh Gali.