रेखा शाह आरबी:
अपना देश व्यंग्य लिखने वालों के लिए यदि कहा जाए कि स्वर्ग है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। स्वर्ग किसे कहा जाता है ? स्वर्ग वही स्थान है जहां पर किसी चीज का अभाव ना रहे। तो अपने देश में भी समस्याओं का अभाव नहीं रहता है। आप आधा किलो दुख खोजने जाएंगे दो किलो आपको मुफ्त में मिल जाएगा। समस्याओं के लिए ना कोई मूल्य चुकाना है और ना ही प्रतीक्षा करनी है। यह स्वयं ही आपके पास दौड़ी चली आएंगी। इसलिए हो गया ना व्यंग्य का स्वर्ग । हर दिन ब्यंग्य लिखने वाले को दो-चार नया विषय मिल ही जाता है ।चाहे वह बौद्धिक रूप से कितना भी गरीब रहे या अपनी आंख कितनी भी मूंदकर रखे या कानों में रेड़ी (अरंडी ) का तेल डालकर पड़ा रहे । या वह टीवी और न्यूज़ पेपर से भले ही सौ कदम भागता रहे। पर कुछ ना कुछ समस्याएं होती रहती हैं। और इसके कारण मन में क्रोध उपजता है । और कभी ना कभी जमीर जाग जाता है ।विद्रोह पर उतारू हो जाता है । व्यंग्य लिखने का मसाला मिल जाता है। समस्याओं के निरंतर आवक होने से अपने देश में व्यंग्यकारो के हमेशा पौ बारह रहती है ।
दुनिया भले ही हताश निराश हो जाए। लेकिन एक व्यंग्यकार कतई निराश नहीं होता है। वह संभावनाओं के द्वार खोजता ही रहता है। हर एक समस्या में अपने लेखन के लिए कुछ ना कुछ खोज ही लेता है। और इस काम से उसे मृत्यु ही विमुख कर सकती है अन्यथा और कोई नहीं कर सकता। व्यंगकार एक बारगी व्यंग्य को भले छोड़ दे लेकिन व्यंग्य उसे छोड़े तब ना उसका पीछा छूट। यह दो लोगों का कंबीनेशन बहुत ही खराब है। एक तो जमीर वाले लोग और दूसरा यदि वह व्यंग्यकार भी रहे। ऐसे लोगों से तो धरती के बड़े से बड़े लोग पनाह मांगते हैं।
अपना देश तो छोड़िए पड़ोसी देश भी एकाद को छोड़कर बाकी ऐसे बिना सिर पैर के मिले हैं। कि दो-चार व्यंग्य व्यंग्यकार से लिखवा ही लेते है।उनके यहां भी उठा पटक जैसे परिस्थिति और स्थिति कुछ ना कुछ लगी रहती है। वैसे अपने देश में भी व्यंग्य को लिखने के लिए मूलभूत मैटेरियल की की कोई कमी नहीं है। कि हम पड़ोसी देशों से विषय उधार लेने जाए।अपना देश इस मामले में आत्मनिर्भर है। हमारे यहां समस्याएं विदेशी डिस्को घास के जैसी हैं। बिना खाद पानी दिए भी भरपूर पैदावार होती है।
व्यंगकार को कुछ लोगों का आभारी होना चाहिए। इनमें है पहले नंबर पर देश के तारणहार नेता, और जनता के सुख के बजाय दुख बढ़ाने वाली पुलिस, और जनता को स्वस्थ करने से ज्यादा बीमार करने वाले अस्पताल और डॉक्टर यह सब ऐसे प्राणी है। जिनका व्यंग्य विधा हमेशा और व्यंग्यकार आभारी रहेंगे । व्यंग्य ने व्यंगकार को रोजी- दिया है पर रोटी ना दे सके।रोटी देना तो सरकार के भी बस में नहीं है तो व्यंग्य विधा भला किस खेत की मूली है। इसीलिए अधिकांश व्यंगकार स्वभाव से अक्खड़ और जेब से फक्खड़ होते है। और जिस भी व्यंग्य कर को व्यंग्य से रोजी और रोटी दोनों मिल रहा है तो समझ जाइए मामला कुछ झोल वाला है। लेकिन खुशी की बात यह है कि ऐसा होता नहीं है ।व्यंग्य लिखने वाला जमीर का सौदा नहीं करता और जो जमीर का सौदा करता है वह व्यंग्य नहीं लिख सकता। दोनों ही एक दूसरे के दुश्मन होते हैं।
जिनका पेट भरपेट भरा होता है उनके लिए व्यंग्य काफी कठिन लगता है। खाली पेट वालों की तो जिंदगी ही एक व्यंग्य होती है। वह चाहे है या ना चाहे कुछ ना कुछ व्यंग्य रूप में उनके श्रीमुख से निकल ही जाता है। और व्यंग्यकार उसे लपक कर व्यंग्य की शक्ल देता है ।व्यंग्य में व्यंग्यकारो की रुचि इसलिए भी रहती है क्योंकि वह भी खाली जेब और खाली पेट रहता है व्यंगकार तो खुद दस बीस ब्यंग्यों के मूल में रहता है।
(कार्टून फोटो साभार गूगल )
