अनुपमा शर्मा:-
ऋग्वेद में सभी देवताओं का बारी-बारी से आह्वान किया गया है । पहले अग्नि फिर वायु फिर अन्यादि अन्य देवताओं का।
ऋग्वेद के मन्त्रों या ऋचाओं की रचना किसी एक ऋषि ने एक निश्चित अवधि में नहीं की, अपितु विभिन्न काल में विभिन्न ऋषियों द्वारा ये रची और संकलित की गयीं। इसमें आर्यों की राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा का आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है। ऋग्वेद में यातुधानों को यज्ञों में बाधा डालने वाला तथा पवित्रात्माओं को कष्ट पहुंचाने वाला कहा गया है।
ऋग्वेद की परिभाषा : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है। इसमें सबकुछ है। यह अपने आप में एक सम्पूर्ण वेद है। ऋग्वेद अर्थात् ऐसा ज्ञान, जो ऋचाओं में बद्ध हो।ऋग्वेद- प्रथम मंडल सूक्त- २
[ऋषि – मधुच्छन्दा विश्वामित्र। देवता १-३ वायु, ४-६ इन्द्र–वायु,७-९ मित्रावरुण। छन्द गायत्री]
१०. वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता:।
तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥१॥
हे प्रियदर्शी वायुदेव। हमारी प्रार्थना को सुनकर यज्ञस्थल पर आयें। आपके निमित्त सोमरस प्रस्तुत है, इसका पान करें ॥१॥
११. वाय उक्वेथेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितार: ।
सुतसोमा अहर्विद: ॥२॥
हे वायुदेव ! सोमरस तैयार करके रखनेवाले, उसके गुणों को जानने वाले स्तोतागण स्तोत्रों से आपकी उत्तम प्रकार से स्तुति करते हैं ॥२॥
१२. वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे। उरूची सोमपीतये ॥३॥
हे वायुदेव ! आपकी प्रभावोत्पादक वाणी, सोमयाग करने वाले सभी यजमानों की प्रशंसा करती हुई एवं सोमरस का विशेष गुणगान करती हुई, सोमरस पान करने की अभिलाषा से दाता (यजमान) के पास पहुँचती है ॥३॥
१३. इन्द्रवायू उमे सुता उप प्रयोभिरा गतम् ।
इन्दवो वामुशान्ति हि ॥४॥
हे इन्द्रदेव! हे वायुदेव! यह सोमरस आपके लिये अभिषुत किया (निचोड़ा) गया है। आप अन्नादि पदार्थों के साथ यहाँ पधारें, क्योंकि यह सोमरस आप दोनों की कामना करता है ।४॥
१४. वायविन्द्रश्च चेतथ: सुतानां वाजिनीवसू।
तावा यातमुप द्रवत् ॥५॥
हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव! आप दोनों अन्नादि पदार्थों और धन से परिपुर्ण हैं एवं अभिषुत सोमरस की विशेषता को जानते हैं। अत: आप दोनों शीघ्र ही इस यज्ञ मे पदार्पण करें।
१५. वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम् ।
मक्ष्वि१त्था धिया नरा ।६॥
हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव ! आप दोनों बड़े सामर्थ्यशाली हैं। आप यजमान द्वारा बुद्धिपूर्वक निष्पादित सोम के पास अति शीघ्र पधारें ॥६॥
१६. मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् ।
धियं घृताचीं साधन्ता ॥७॥
घृत के समान प्राणप्रद वृष्टि सम्पन्न कराने वाले मित्र और वरुण देवों का हम आवाहन करते हैं। मित्र हमें बलशाली बनायें तथा वरुणदेव हमारे हिंसक शत्रुओ का नाश करें ।७॥
१७. ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधारुतस्पृशा । क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥८॥
सत्य को फलितार्थ करने वाले सत्ययज्ञ के पुष्टिकारज देव मित्रावरुणो ! आप दोनों हमारे पुण्यदायी कार्यों (प्रवर्तमान सोमयाग) को सत्य से परिपूर्ण करें ॥८॥
१८. कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम् ॥९॥
अनेक कर्मो को सम्पन्न कराने वाले विवेकशील तथा अनेक स्थलो में निवास करने वाले मित्रावरुण् हमारी क्षमताओं और कार्यों को पुष्ट बनाते हैं ॥९॥
(जारी..)