अनुपमा शर्मा:–
*ऋग्वेद–प्रथम मण्डल सूक्त ५*
*ऋषि – मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता–इन्द्र ।छन्द – गायत्री]*
मधुच्छन्दा वैश्वमित्रः” बिना किसी संधि या संयोजन के लिखा गया है: “मधुच्छन्दास वैश्वमित्रः”।
महान ऋषि विश्वामित्र के 101 बच्चे थे। उनके 51वें पुत्र का नाम मधुच्छन्दास है, जो ऋषि या द्रष्टा हैं, जो लेखक हैं, या बल्कि वे जिन्होंने ऋग्वेदसंहिता के पहले सूक्त या भजन को “देखा”। दूसरे शब्दों में, पहला सूक्त उन्हीं से ही प्रकट हुआ था। “वैश्वमित्रः” शब्द का अर्थ है “विश्वामित्र से संबंधित”। इस मामले में, इसका अर्थ निश्चित रूप से “विश्वामित्र का पुत्र” होना चाहिए। फिर से, “ऋषि” शब्द का अर्थ “ऋषि, आदि” भी है, लेकिन मुझे लगता है कि “द्रष्टा” शब्द अधिक उपयुक्त है, क्योंकि ऋषि वास्तव में इन सभी वैदिक भजनों के लेखक नहीं हैं, बल्कि वे हैं जिन्हें वे प्रकट हुए थे। उन्होंने भजनों को देखा, और इस कारण से उन्हें “द्रष्टा” कहा जाता है। बेशक, यदि आप शब्द का अनुवाद “ऋषि, आदि” के रूप में करते हैं तो भी यह सही है, लेकिन मेरी विनम्र राय में “द्रष्टा” अधिक सटीक है। मेरी पुष्टि में कुछ व्युत्पत्ति संबंधी समर्थन भी है, क्योंकि “ऋषि” शब्द “संभवतः” मूल “ऋष” से लिया गया है, जो वर्तमान मूल “दृश” (देखना) का अप्रचलित रूप होगा।
पंचम सूक्त इंद्रदेवता को समर्पित है । ऋषियों ने इंद्र की आराधना व आह्वान किस तरह करना चाहिए यह बताया है।
स घा॑ नो॒ योग॒ अ भु॑व॒त्स रा॒ये स पुरं॑ध्याम्। गम॒द्वाजे॑भि॒रा स नः॑॥
वे इन्द्रदेव हमारे पुरषार्थ को प्रखर बनाने में सहायक हों, धन धान्य से हमें परिपूर्ण करें तथा ज्ञानप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए पोषक अन्न सहित हमारे निकट आयें ॥
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ईश्वर पुरुषार्थी मनुष्य का सहायकारी होता है आलसी का नहीं, तथा स्पर्शवान् वायु भी पुरुषार्थ ही से कार्य सिद्धि का निमित्त होता है, क्योंकि किसी प्राणी को पुरुषार्थ के बिना धन व बुद्धि का और इन के बिना उत्तम सुख का लाभ कभी नहीं हो सकता। इसलिये सब मनुष्यों को उद्योगी अर्थात् पुरुषार्थी आशावाला अवश्य होना चाहिये॥
यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥
(हे याजको!) संग्राम मे जिनके अश्वों से युक्त रथों के सम्मुख शत्रु टिक नहीं सकते, उन इन्द्रदेव के गुणों का आप गान करें॥
इस मन्त्र में भी श्लेषालङ्कार है। जब तक मनुष्य परमेश्वर को अपना इष्ट देव समझने वाले और बलवान् अर्थात् पुरुषार्थी नहीं होते, तब तक उनमें दुष्ट शत्रुओं को निर्बल करने की सामर्थ्य भी नहीं होती॥
सु॒त॒पाव्ने॑ सु॒ता इ॒मे शुच॑यो यन्ति वी॒तये॑। सोमा॑सो॒ दध्या॑शिरः॥
यह निचोड़ा और शुद्ध किया हुआ दही मिश्रित सोमरस, सोमपान की इच्छा करने वाले वाले इन्द्रदेव के निमित्त प्राप्त हो ॥५॥
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ईश्वर ने सब जीवों पर कृपा करके उनके कर्मों के अनुसार यथायोग्य फल देने के लिये सब कार्य रूप जगत् को रचा और पवित्र किया है, तथा पवित्र करने कराने वाले सूर्य और पवन को रचा है, उसी हेतु से सब जड़ पदार्थ व जीव पवित्र होते हैं। परन्तु जो मनुष्य पवित्र गुणकर्मों के ग्रहण से पुरुषार्थी होकर संसारी पदार्थों से यथावत् उपयोग लेता है तथा सब जीवों को उनके उपयोगी करता है वे ही मनुष्य पवित्र और सुखी होते हैं॥
त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः। इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो॥
हे उत्तम कर्म वाले इन्द्रदेव! आप सोमरस पीने के लिये देवताओं में सर्वश्रेष्ठ होने के लिये तत्काल वृद्ध रूप हो जाते हैं॥६॥
ईश्वर जीव के लिये उपदेश करता है कि-हे मनुष्य ! तू जब तक विद्या में वृद्ध होकर अच्छी प्रकार परोपकार न करेगा, तब तक तुझको मनुष्यपन और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति कभी न होगी, इसलिये तू सदा परोपकार करनेवाला हो ॥
आ त्वा॑ विशन्त्वा॒शवः॒ सोमा॑स इन्द्र गिर्वणः। शं ते॑ सन्तु॒ प्रचे॑तसे॥
हे इन्द्रदेव! तीनों सवनो में व्याप्त रहने वाला यह सोम, आपके सम्मुख उपस्थित रहे एवं आपके ज्ञान को सुखपूर्वक संमृद्ध करें॥७॥एल
हे इन्द्रदेव! तीनो सवनों में व्याप्त रहने वाला यह सोम, आपके सम्मुख उपस्थित रहे एवं आपके ज्ञान को सुखपूर्वक संमृद्ध करें॥
ईश्वर ऐसे मनुष्यों को आशीर्वाद देता है कि जो मनुष्य विद्वान् परोपकारी होकर अच्छी प्रकार नित्य उद्योग करके इन सब पदार्थों से उपकार ग्रहण करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है, वही सदा सुख को प्राप्त होता है, अन्य कोई नहीं॥
त्वां स्तोमा॑ अवीवृध॒न्त्वामु॒क्था श॑तक्रतो। त्वां व॑र्धन्तु नो॒ गिरः॑॥
हे सैकड़ों यज्ञ करने वाले इन्द्रदेव! स्तोत्र आपकी वृद्धि करें। यह उक्थ(स्तोत्र) वचन और हमारी वाणी आपकी महत्ता बढाये॥
इस विश्व में पृथ्वी सूर्य आदि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रचे हुए पदार्थ हैं, वे सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाले तथा धन्यवाद देने के योग्य परमेश्वर ही को प्रसिद्ध करके जनाते हैं, जिससे न्याय और उपकार आदि ईश्वर के गुणों को अच्छी प्रकार जान के विद्वान् भी वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त हों॥
अक्षि॑तोतिः सनेदि॒मं वाज॒मिन्द्रः॑ सह॒स्रिण॑म्। यस्मि॒न्विश्वा॑नि॒ पौंस्या॑॥रक्षणीय की सर्वथा रक्षा करने वाले इन्द्रदेव बल पराक्रम प्रदान करने वाले विविध रूपों में विद्यमान सोम रूप अन्न का सेवन करें॥
जिसकी सत्ता से संसार के पदार्थ बलवान् होकर अपने-अपने व्यवहारों में विद्यमान हैं उन सब बल आदि गुणों से लेकर विश्व के नाना प्रकार के सुख भोगने के लिये हम लोग पूर्ण पुरुषार्थ करें, तथा ईश्वर इस प्रयोजन में हमारी सहायता करें, इसलिये हम लोग ऐसी प्रार्थना करते हैं॥
मा नो॒ मर्ता॑ अ॒भिद्रु॑हन्त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः। ईशा॑नो यवया व॒धम्॥
हे स्तुत्य इन्द्रदेव! हमारे शरीर् को कोई भी शत्रु क्षति ना पहुँचाएं। कोई भी हमारी हिंसा न करें, आप हमारे संरक्षक बने रहें॥
कोई मनुष्य अन्याय से किसी भी प्राणी को मारने की इच्छा न करें, परस्पर मित्र भाव से व्यवहार करें, क्योंकि जैसे परमेश्वर बिना अपराध के किसी का तिरस्कार नहीं करता, वैसे ही सब मनुष्यों को भी करना चाहिये॥
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥
जो लोग विद्या सम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को चाहिए है कि पृथ्वी आदि के पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुँचावें जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें।
